अहिंसा और मैत्री से संभव है आध्यात्मिक विकास : आचार्यश्री महाश्रमण
तेरापंथ के भास्कर आचार्यश्री महाश्रमणजी उधना का चार दिवसीय प्रवास समाप्त कर सूरत के सिटी लाइट स्थित तेरापंथ भवन में पधारे। महाश्रमिक पूज्यवर कई स्थानों पर श्रावक-श्राविकाओं को दर्शन देने पधारे। इस कारण पूज्य प्रवर का प्रवचन प्रातः कालीन समय में ना होकर रात्रि काल में हुआ। पूज्यवर ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि अहिंसा शब्द बहुत प्रसिद्ध है। 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस भी मनाया जाता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अहिंसा यात्रा की थी, और बाद में भी अहिंसा यात्रा चली। अहिंसा से संबंधित एक अन्य तत्व है—मैत्री तत्व। मैत्री में अहिंसा तो विद्यमान है ही।
अहिंसा शब्द निषेधात्मक है, जबकि मैत्री शब्द में विधायकता है। हिंसा का न होना यानी किसी को न मारना, इस तरह से नकारात्मक रूप से जुड़ा तत्व अहिंसा है। वहीं, दूसरों का हित चिंतन मैत्री में और अधिक जुड़ जाता है। जैसे मृषावाद वर्जन (झूठ का त्याग) और सत्य भाषण (सत्य का कहना) एक जैसे लगते हैं, पर उनमें भी अंतर है। वैसे ही अहिंसा और मैत्री में अंतर है। साधु मृषावाद का त्याग करता है, पर हर सत्य बात बोलना आवश्यक नहीं होता। साधु हिंसा का त्याग करता है, पर दूसरों का हित चिंतन कर सकता है। जहाँ प्रवृत्ति होती है, वहाँ मैत्री हो सकती है। चौदहवें गुणस्थान में अहिंसा तो होती है, पर मैत्री नहीं, क्योंकि वहाँ प्रवृत्ति नहीं होती। जहाँ एकांत निवृत्ति होती है, वहाँ सत्य भाषण भी संभव नहीं होता।
अहिंसा निवृत्ति है, जबकि मैत्री प्रवृत्ति है। मृषावाद में गुप्ति (संयम) होती है, जबकि सत्य भाषण में समिति (सावधानी) होती है। इसी प्रकार, अहिंसा में गुप्ति है, तो मैत्री में समिति। जिसके जीवन में मृषावाद का त्याग और मैत्री का भाव होता है, उसका आध्यात्मिक विकास हो सकता है। प्रातः कालीन कार्यक्रम में साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि जो आत्मा को शुद्ध करने का साधन है, वही धर्म है। धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। जिसके मन में धर्म रम गया है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। भगवान ने आगमों में छह जीव निकायों की व्याख्या की है। हमें स्थावर जीवों के प्रति भी दया और करुणा का भाव रखना चाहिए। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष मुकेश बैद एवं समाज ने सामूहिक गीत के माध्यम से अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि कुमारश्रमणजी ने किया।