धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

'ठाणं' के मूल पाठ व टिप्पण में इस चतुष्टयी का आधार प्राप्त है। मूल पाठ की भाषा इस प्रकार है-
चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तंजहा-
सुभे णाममेगे सुभे,
सुभे णाममेगे असुभे,
असुभे णाममेगे सुभे,
असुभे णाममेगे असुभे।
इसी प्रकार विपाक की दृष्टि से भी कर्म चार प्रकार के होते हैं–
१. पुण्यविपाकी पुण्य कर्म– बन्धनकाल में भी पुण्य और उदयकाल में भी पुण्य कर्म।
२. पुण्यविपाकी पाप कर्म– बन्धनकाल में पाप और उदयकाल में पुण्य कर्म।
३. पापविपाकी पुण्य कर्म– बन्धनकाल में पुण्य और उदयकाल में पाप कर्म।
४. पापविपाकी पाप कर्म– बन्धनकाल में भी पाप और उदयकाल में भी पाप कर्म।
मूल पाठ की भाषा इस प्रकार है–
चउब्विहे कम्मे पण्णत्ते तंजहा–
सुभे णाममेगे सुभविवागे,
सुभे णाममेगे असुभविवागे,
अझुभे णाममेगे सुभविवागे,
असुभे णाममेगे असुभविवागे।
इस प्रकार कर्म की स्थिति को जानकर साधक पाप कर्मों को छोड़ अनासक्त भाव से कल्याणकारी कर्म में प्रवृत्त होता है तो वह सर्वथा बन्धन मुक्त बन सकता है।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं
जीवन का लक्ष्य आत्महित, सुखानुभूति व शांतिप्राप्ति होता है, होना चाहिए। स्थायी और चैतसिक सुख शान्ति संयम व त्याग-प्रत्याख्यान से प्रसूत होती है। आगम-साहित्य में प्रत्याख्यान के दो प्रकार बतलाए गए हैं–
१. मूलगुण प्रत्याख्यान
२. उत्तरगुण प्रत्याख्यान।
आध्यात्मिक साधना के लिए जो गुण अनिवार्य होते हैं वे मूलगुण कहलाते हैं। साधना के विकास के लिए किए जाने वाले निर्धारित प्रयोग उत्तरगुण कहलाते हैं। मूलगुण प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं - सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान और देशमूलगुण प्रत्याख्यान। इनमें प्रथम सर्वविरत (मुनि) के लिए और दूसरा देशविरत (श्रावक) के लिए आचरणीय होता है।
सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान के पांच प्रकार हैं- १. सर्वप्राणातिपात विरमण २. सर्व मृषावाद विरमण, ३. सर्व अदत्तादान विरमण ४. सर्व मैथुन विरमण ५. सर्व परिग्रह विरमण।
देश मूलगुण प्रत्याख्यान के भी पांच प्रकार हैं–
१. स्थूल प्राणातिपात विरमण
२. स्थूल मृषावाद विरमण
३. स्थूल अदत्तादान विरमण
४. स्थूल मैथुन विरमण
५. स्थूल परिग्रह विरमण।
उत्तरगुण प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं–
१. सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान।
२. देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान।