श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

संगम आगे हो गया गांव के लोग उसके पीछे-पीछे चलने लगे। वे सब भगवान् के पास पहुंचे। संगम ने कहा, 'ये हैं मेरे गुरु।' लोगों ने भगवान् से पूछा, 'क्या तुम चोर हो?' भगवान् मौन रहे। लोगों ने फिर पूछा, 'क्या तुमने इसे चोरी करने के लिए भेजा था?' भगवान् अब भी मौन थे। लोगों ने सोचा, कोई उत्तर नहीं मिल रहा है, अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा हुआ है। वे भगवान् को बांधकर गांव में ले जाने लगे।
महाभूतिल उस युग का प्रसिद्ध ऐन्द्रजालिक था। वह उस रास्ते से जा रहा था। उसने देखा, 'बन्धन मुक्ति को अभिभूत करने का प्रयत्न कर रहा है।' उसने दूर से ही ग्रामवासियों को ललकारा, 'मूर्खों! यह क्या कर रहे हो?' उन्होंने देखा यह महाभूतिल बोल रहा है। उनके पैर ठिठक गये। वे कुछ सिर झुकाकर बोले, 'महाराज ! यह चोर है। इसे पकड़कर गांव में ले जा रहे हैं।' इतने में महाभूतिल नजदीक आ गया। वह भगवान् के पैरों में लुढ़क गया।
ग्रामवासी आश्चर्य में डूब गये। यह क्या हो रहा है? हम भूल रहे हैं या महाभूतिल? क्या यह चोर नहीं? वे परस्पर फुसफुसाने लगे। महाभूतिल ने दृढ़ स्वर में कहा, 'यह चोर नहीं है? महाराज सिद्धार्थ का पुत्र राजकुमार महावीर है। जिस व्यक्ति ने राज्य-सम्पदा को त्यागा है, वह तुम्हारे घरों में चोरी करेगा? मुझे लगता है कि तुम लोग चिंतन के क्षेत्र में बिलकुल दरिद्र हो।'
'महाराज! आप क्षमा करें। हमारी भूल हुई है, उसका कारण हमारा अज्ञान है। हमने जान-बूझकर ऐसा नहीं किया' ग्रामवासी एक साथ चिल्लाए ।
भगवान् पहले भी शांत थे, बीच में भी शांत थे और अब भी शांत हैं। शांति ही उनके जीवन की सफलता है।
9. भगवान् तोसली से प्रस्थान कर मोसली गांव पहुंचे। वहां संगम ने फिर उसी घटना की पुनरावृत्ति की। आरक्षक भगवान् को पकड़कर राजकुल में ले गए। उस गांव के शास्ता का नाम था सुमागध। वह सिद्धार्थ का मित्र था। उसने भगवान् को पहचाना और मुक्त कर दिया। उसने अपने आरक्षकों की भूल के लिए क्षमा मांगी और हार्दिक अनुताप प्रकट किया।
१०. भगवान् फिर तोसली गांव में आए। संगम ने कुछ औजार चुराए और भगवान् के पास लाकर रख दिए। आरक्षक भगवान् को तोसली क्षत्रिय के पास ले गए। क्षत्रिय ने कुछ प्रश्न पूछे। भगवान् ने कोई उत्तर नहीं दिया। क्षत्रिय के मन में संदेह हो गया। उसने फांसी के दंड की घोषणा कर दी।
जल्लाद ने भगवान् के गले में फांसी का फंदा लटकाया और वह टूट गया। दूसरी बार फिर लटकाया और फिर टूट गया। सात बार ऐसा ही हुआ। आरक्षक हैरान थे। वे क्षत्रिय के पास आए और बीती बात कह सुनाई। क्षत्रिय ने कहा, 'यह चोर नहीं है। कोई पहुंचा हुआ साधक है।' वह दौड़ा-दौड़ा आया। भगवान् के चरणों में नमस्कार कर उसने अपने अपराध के लिए क्षमा-याचना की।
भगवान् अक्षमा और क्षमा-दोनों की मर्यादा से मुक्त हो चुके थे। उनके सामने न कोई अक्षम्य था और न कोई क्षम्य। वे सहज शांति की सरिता में निष्णात होकर विहार कर रहे थे।
नारी का बन्ध–विमोचन
नवोदित सूर्य की रश्मियां व्योमतल में तैरती हुई धरती पर आ रही हैं। तिमिर का सघन आवरण खण्ड-खण्ड होकर शीर्ण हो रहा है। प्रकाश के अंचल में हर पदार्थ अपने आपको प्रकट करने के लिए उत्सुक-सा दिखाई दे रहा है। नींद की मादकता नष्ट हो रही है। जागरण का कार्य तेजी के साथ बढ़ रहा है।