संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आत्म-जगत् में जागृत रहने से हमारा व्यवहार बंद नहीं होता, किन्तु व्यवहार में जो आसक्ति होती है वह खत्म हो जाती है।
साधक के लिए व्यवहार गौण है और आत्मा प्रधान है। वह आत्म-हित को खोकर कहीं प्रवृत्त नहीं हो सकता। भगवती आराधना में कहा है-'आभ्यन्तर शुद्धि के साथ बाह्य-व्यवहार-शुद्धि तो अवश्यंभावी है। बहिरंग दोष इस बात के प्रमाण है कि व्यक्ति भीतर में शुद्ध नहीं है।' व्यवहार-शुद्धि धोखा भी हो सकती है। गृहस्थ श्रावक जो अपनी अंतश्चेतना में उतर गया, वह बाहर में लिप्त नहीं होता।
'अभोगी नोवलिप्पर' आत्मानुरक्त व्यक्ति उपलिप्त नहीं होता। जीवनचर्या उसकी भी होती है, वह व्यवहार में कार्य भी करता है, किन्तु अपने केन्द्र को छोड़ता नहीं।
१५. अज्ञानकष्टं कुर्वाणा, हिंसया मिश्रितं बहु।
मुमुक्षां दधतोऽप्येके, बध्यन्तेऽज्ञानिनो जनाः॥
अविवेकपूर्ण ढंग से बहुत सारे हिंसा मिश्रित कष्टों को झेलने
वाले अज्ञानी लोग मुक्त होने की इच्छा रखते हुए भी कर्मों से आबद्ध होते हैं।
१६. कर्मकाण्डरताः केचिद्, हिंसां कुर्वन्ति मानवाः।
स्वर्गाय यतमानास्ते, नरकं यान्ति दुस्तरम्।।
क्रियाकाण्ड में आसक्त होकर जो लोग हिंसा करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति का प्रयत्न करते हुए भी दुस्तर नरक को प्राप्त होते हैं।
महावीर कष्ट-सहिष्णु थे और कष्टों के आमंत्रक भी थे। समागत या आमंत्रित कष्टों में उनकी धृति अविच्युत थी। उनकी दृष्टि आत्मा पर थी। वे आत्म-निखार में सतत जागरूक थे। इसलिए उन्होंने आत्म-विस्मृत होकर कष्ट सहने का समर्थन नहीं किया? और न हिंसापूर्ण वृत्तियों का। रत्नसार में आचार्य कहते हैं- 'क्रोध को दंडित नहीं कर शरीर को दंडित करना बुद्धिमानी नहीं है। उससे शुद्धि नहीं होती। सांप को न मार कर सर्प के बिल पर मार करने से सर्प नहीं मारा जाता।' केवल देह-दंड से नहीं, आंतरिक कषाय शत्रुओं को परास्त करने से ही आत्म-बोध संभव है। जिस प्रक्रिया से दूसरों को उत्पीड़न न हो और विजातीय तत्त्व का रेचन हो, वह तप है। आत्म-बोध यदि तप से नहीं होता है तो वह तप अज्ञान तप की कोटि में चला जाता है। महावीर अज्ञान तप के प्रसंशक नहीं; अपितु उसके प्रबल विरोधक थे। वे शुद्ध क्रिया के समर्थक थे, चाहे कोई भी व्यक्ति, कहीं पर करता हो, उनकी दृष्टि में वह समादरणीय था। अनेक अन्य मतावलंबी व्यक्तियों की भी महावीर ने प्रशंसा की थी। किन्तु हिंसापूर्ण क्रिया और आत्मज्ञान को आवृत करने वाले कार्यों से वांछित वस्तु की प्राप्ति को वे असंभव मानते थे।