धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान के दस प्रकार बतलाए गए हैं–
१. अनागत प्रत्याख्यान– भविष्य में करणीय तप को पहले करना।. जैसे पर्युषण पर्व के समय आचार्य, तपस्वी, ग्लान आदि के वैयावृत्त्य में संलग्न रहने के कारण मैं प्रत्याख्यान-तपस्या नहीं कर सकूंगा इस प्रयोजन से अनागत तप वर्तमान में किया जाता है।
२. अतिक्रान्त तप– वर्तमान में करणीय तप नहीं किया जा सके, उसे भविष्य में करना।
३. कोटिसहित प्रत्याख्यान– एक प्रत्याख्यान का अन्तिम दिन और दूसरे प्रत्याख्यान का प्रारंभिक दिन हो, वह कोटिसहित प्रत्याख्यान है।
४. नियंत्रित प्रत्याख्यान– नीरोग या ग्लान अवस्था में भी 'मैं अमुक प्रकार का तप अमुक अमुक दिन अवश्य करूंगा' इस प्रकार का प्रत्याख्यान करना।
५. साकार प्रत्याख्यान– अपवाद सहित प्रत्याख्यान।
६. अनाकार प्रत्याख्यान– अपवाद रहित प्रत्याख्यान।
७. परिमाणकृत प्रत्याख्यान– दत्ति, कवल, भिक्षा, गृह रव्य आदि के परिमाणयुक्त प्रत्याख्यान।
८. निरवशेष प्रत्याख्यान– अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का सम्पूर्ण परित्यागयुक्त प्रत्याख्यान।
९. सकेत प्रत्याख्यान– संकेत या चिह्न सहित किया जाने वाला प्रत्याख्यान। जैसे जब तक यह दीप नहीं बुझेगा या जब तक मैं घर नहीं जाऊंगा या जब तक पसीने को बूंदें नहीं सूखेंगी तब तक मैं कुछ भी न खाऊंगा और न पीऊंगा।
१०. अध्वा प्रत्याख्यान– मुहूर्त, पौरुषी आदि कालमान के आधार पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान।
देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान के सात प्रकार प्रज्ञप्त हैं–
१. दिग्व्रत
२. उपभोग-परिभोग परिमाण
३. अनर्थदण्ड विरमण
४. सामायिक
५. देशावकासिक
६. पौषधोपवास
७. अतिथिसंविभाग।
अन्त में अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना। ये सभी गुण-व्रत और आध्यात्मिक प्रयोग परम सुख-प्राप्ति के हेतु
बनते हैं।
सुख दो प्रकार का होता है– इन्द्रिय-सुख और अतीन्द्रिय सुख। इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाला सुख मनोज्ञ इन्द्रिय विषयों की उपलब्धि पर आधारित होता है। उनकी अनुपलब्धि से वह नहीं मिलता। उन सुखों में लिप्त होना दुःख का कारण बन जाता है। आगम में इस सच्चाई को इस भाषा में प्रकट किया गया है–
जह किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो।
एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरो।।
जिस प्रकार किंपाक फल खाने में अच्छे लगते हैं, किंतु उनका परिणाम असुन्दर (प्राणान्त) रूप में होता है, उसी प्रकार भोग भोगकाल में सुखद लगते हैं, किन्तु परिणाम-काल में वे दुःखदायी हो जाते हैं। संस्कृत साहित्य में भी कहा गया है–
इक्षुवद् विरसाः प्रान्ते सेविता स्युः परे रसाः।
सेवितस्तु रसः शान्तः सरसः स्यात परम्परम् ।।
अन्य रस सेवित होने पर अन्त में इक्षु की भांति विरस बन जाते हैं। शान्त रस एक ऐसा रस है जो सेवित होने पर आगे से आगे सरस बनता जाता है।