धर्माराधना से अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करें  :  आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

धर्माराधना से अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण

युग प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी वड़ोदरा शहर के बाहरी क्षेत्र कोयली में पधारे। आगम वाणी की व्याख्या कराते हुए महामनीषी ने फरमाया दुनिया में मित्र होते हैं। व्यवहार की दुनिया में मित्र सुख-दुुःख में सहयोगी बन सकते हैं। मित्रता का अनुबन्ध अनेक जन्मों तक चलता रहता है। आचार्यश्री भिक्षु के ग्रन्थों में मिलता है कि मित्र से मित्रता का सम्बन्ध और बैरी से शत्रुता का बन्ध अनेक जन्मों तक रह सकता है। शास्त्र में एक बात बताई गई है कि आत्मा मित्र है, और आत्मा ही शत्रु है। पुरूष ! तुम्हीं तुम्हारे मित्र हो, फिर बाहर क्या मित्र की खोज कर रहे हो?
आदमी अपनी आत्मा को मित्र बना ले तो सुख की प्राप्ति भी संभव हो सकती है। अहिंसा धर्म की जो साधना कर रहा है वो आत्मा को मित्र बना रहा है। यदि वह हिंसा में प्रवृत्त होता है तो आत्मा दुश्मन बन जाती है। व्यक्ति सच्चाई के माग पर चलता है, ईमानदारी का अनुशीलन करता है तो आत्मा मित्र बन रही है। झूट-कपट करता है, दुर्भावना करता है तो आत्मा दुश्मन बन जाती है। सार रूप में जहां धर्म का आचरण है वहां आत्मा मित्र बन जाती है। जहां अधर्म-पाप आचरण है तो आत्मा शत्रु बन जाती है। अगर पाप का उदय है तो मित्र भी आदमी की सहायता नहीं कर सकते हैं। कर्म अपने करने वाले का अनुगमन करता है। कृत कर्म का आदमी स्वयं ही फल पाता है। कोई किसी का कष्ट दूर नहीं कर सकता, कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता। शत्रु आत्मा दुःख देने वाली न बने इसलिए धर्म के पथ पर चलना चाहिए।
पूर्व के पुण्यकर्मों से वर्तमान जीवन में सुख प्राप्त हो रहा है, पर पूर्वकृत पुण्य धीरे-धीरे उदय में आकर क्षीण हो रहे हैं। आगे के लिए भी आदमी को धर्म-ध्यान के माध्यम से सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। त्याग, तपस्या, साधना, स्वाध्याय आदि के द्वारा व्यक्ति को अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। आदमी यह सोचे कि मैं धर्म करूं और पुण्य का खजाना और भरूं। पुण्य छोटी बात है, संवर, निर्जरा बड़ी बात है। हम संवर-निर्जरा से उत्कृष्ट मोक्ष की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करें। धर्म की आराधना करना भी भाग्य की बात है। जीवन में धार्मिक-आध्यात्मिक साधना का प्रयास हो। उम्र बढ़ने के साथ धर्म की पूंजी भी बढ़ानी चाहिए। मानव धर्माराधना के द्वारा अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास करे। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारीजी ने किया।