मन रूपी चित्रपट्ट पर पिक्चर लाने वाला है मोहनीय कर्म : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म जगत के उज्ज्वल नक्षत्र आचार्यश्री महाश्रमणजी पोरगांव से विहार कर जाम्बुवा के नमन आइडियल स्कूल में पधारे। जिनवाणी का रसास्वाद कराते हुए युग पुरूष ने फरमाया कि पुरूष के अन्दर अनेक वृत्तियां होती हैं और वृत्ति से प्रवृत्तियां होती हैं। तीन शब्द हो जाते हैं- वृत्ति, प्रवृत्ति और निवृत्ति। हमारे भीतर लोभ, माया, मान, क्रोध, राग-द्वेष आदि कई वृत्तियां है जिन्हें संज्ञा के रूप में देखा जा सकता है। संज्ञा नाम रूप में भी होती है। आदमी के भीतर हिंसा की वृत्ति भी होती है। उदाहरण के तौर पर पूज्यवर ने फरमाया कि प्राणातिपात - पाप स्थान, प्राणातिपात - आश्रव और प्राणातिपात - बन्ध, ये तीन शब्द हैं। जिस कर्म के उदय से प्राणी हिंसा करता है वह पाप स्थान है। जो हिंसा की प्रवृत्ति है, वो आश्रव है और हिंसा करने से नए पाप कर्म का बंध हो रहा है, वह बन्ध है। भूूत, वर्तमान और भविष्य का यह संबंध है। इसी प्रकार अन्य पापों के भी तीन-तीन प्रकार हो सकते हैं।
हमारे भीतर बुरे भाव के रूप में दुर्वृत्ति भी है तो अच्छे भाव के रूप में सुवृत्ति भी हो सकती है। दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। हम दोनों रूप में वृत्ति को देख सकते हैं। आदमी अनेक चित्तों वाला होता है। उसके भावों में परिवर्तन होता रहता है, परिस्थितियां, विचार बदल सकते हैं। व्यक्ति के अशुभ योग होते हैं वे तो ऊपर से हैं। अशुभ योगों को बनाने वाला मोहनीय कर्म का उदय भाव है। योग उजले या मैले, मोहनीय कर्म के दूर रहने से या मोहनीय कर्म के उदय से बनते हैं। हमारे मन, वचन, काय तीन योग हैं। मोहनीय कर्म का उदय तो छठे गुणस्थान तक वालों के तो हर समय होता रहता है। प्रश्न हो सकता है कि मोहनीय कर्म का उदय है तो क्या योग शुभ होगा ही नहीं? पूज्यवर ने समाधान देते हुए फरमाया कि उदय भी दो प्रकार का होता है। एक तो मोहनीय कर्म का उदय सुप्त अवस्था का उदय और दूसरा मोहनीय कर्म के उत्तेजित या जागृत अवस्था का उदय। सुप्त अवस्था में मोहनीय का उदय है वह योगों को अशुभ नहीं कर सकता, जागृत अवस्था में मोह का उदय हो तब हमारे योग अशुभ बन सकते हैं।
योग की पृष्ठभूमि में लेश्या, अध्यवसाय, परिणाम को देख सकते हैं। अध्यवसाय हमारे बन्धन और निर्जरा के कारण बन सकते हैं। मन ही बन्ध और मोक्ष का कारण बनता है। जिसके मन नहीं होता वो सातवीं नरक में नहीं जा सकता। संज्ञी मनुष्य सातवीं नरक में जा सकता है तो अनुत्तर विमान और मोक्ष में भी जा सकता है। संज्ञी मनुष्य ही केवलज्ञानी बन सकता है। मन के अच्छे परिणामों से महानिर्जरा हो सकती है तो मन के खराब परिणाम महापाप का बन्ध भी करा सकते हैं। तंदुल मत्स्य छोटा सा प्राणी है, वह सातवीं नरक में जाने योग्य कर्मों का बंध कर लेता है। मन तो एक तरह का चित्रपट्ट है उस पर पिक्चर लाने वाला मोहनीय कर्म ही है। यही अच्छी या खराब पिक्चर लाने वाला है।
इसलिए व्यक्ति को अपने भावों को शुद्ध और सुवृत्ति की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। पूज्यवर के निर्देशानुसार मुख्य मुनि महावीरकुमार जी, मुनि उदितकुमार जी, मुनि दिनेशकुमार जी एवं मुनि योगेशकुमार जी ने भी मोहनीय कर्म की सुप्त-जागृत अवस्था एवं कर्म बंधन के विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त किए। बहिर्विहार से पहुंची साध्वी लब्धिश्रीजी ने पूज्यवर के समक्ष अपने हृदयोद्घार व्यक्त करते हुए सहवर्ती साध्वियों के साथ गीत का संगान किया। पूज्य वर के स्वागत में स्कूल के शिक्षक कल्पित भाई ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। वड़ोदरा सभाध्यक्ष सुशील कोठारी ने वक्तव्य एवं तेरापंथ महिला मंडल, वड़ोदरा ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।