संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

२१. न पुरुषो न वापि स्त्री, नैवाप्यस्ति नपुंसकम्।
        विचित्रपरिणामेन, देहेऽसौ परिवर्तते॥ 
आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है और न नपुंसक। वह विचित्र परिणतियों द्वारा शरीर में परिवर्तित होता रहता है। 
पुरुष, स्त्री आदि शब्दों का व्यवहार शरीर रचना सापेक्ष है। शरीर आत्मा नही है किंतु आत्मा का निवासस्थान है। आत्मा विभिन्न शरीरों को धारण कर तद् रूप बन जाती है। उसे अनेक संज्ञाएं मिल जाती हैं। लेकिन आत्मा इन सबसे पृथक् है। वह चिदानंद स्वरूप है। 
२२. असवर्णः सवर्णो वा, नासौ क्वचन विद्यते। 
      अनन्तज्ञान-सम्पन्नः, संपर्येति शुभाशुभैः॥
आत्मा न सवर्ण है और न असवर्ण। वह स्वरूप की दृष्टि से अनन्तज्ञान से युक्त है। शुभ, अशुभ कर्मों के द्वारा बद्ध होने के कारण वह संसार में परिभ्रमण करता है। 
वर्णसंकर-स्वर्णिक और स्पृश्य-अस्पृश्य की मान्यताएं तात्त्विक नहीं हैं। ये व्यवहार-भेद पर आश्रित हैं। आत्मा अनंत ज्ञानमय है। वह एक स्पृश्य में है, वैसे ही अस्पृश्य में है। मनुष्येतर प्राणियों में भी आत्मा के मूलरूप में कोई अंतर नहीं है। गीता कहती है- पंडित लोग सुशिक्षित और विनयशील ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते या चांडाल को समान दृष्टि से देखते हैं।
२३. गेहाद् गेहान्तरं यान्ति, मनुष्याः गेहवर्तिनः। 
      देहाद् देहान्तरं यान्ति, प्राणिनो देहवर्तिनः।। 
घर में रहने वाले मनुष्य जैसे एक घर को छोड़कर दूसरे घर में जाते हैं उसी प्रकार शरीर में रहने वाली प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं। 
शुद्ध आत्मा का संसरण नहीं होता। शरीरधारी आत्मा संसरण करती है। एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करने से आत्मा का स्वभाव परिवर्तन नहीं होता। यदि शरीर के साथ आत्मा का विनाश माना जाये तो उसका चैतन्य स्वरूप नहीं रह सकता।