श्रमण महावीर
वसुमती के स्वभाव और व्यवहार ने समूचे घर को मोहित कर लिया। उसने धनावह के घर में दासी के रूप में पैर रखा था, पर अपनी विशिष्टता के कारण वह पुत्री बन गई। शील की सुगंध और शीतलता ने उसे वसुमती से चंदना बना दिया।
चंदना का दिन-दिन निखरता सौंदर्य अन्य युवतियों के मन में ईर्ष्या भरने लगा। एक दिन मूला के मन में आशंका के बादल उमड़ आए। वह सोचने लगी, श्रेष्ठी चंदना के बारे में सही बात नहीं बता रहे हैं। वे इसके प्रति बहुत आकृष्ट हैं। कहीं धोखा न हो जाए? इसके साथ विवाह न कर लें? यदि कर लिया तो फिर मेरी क्या गति होगी?' इन अर्थशून्य विकल्पों ने मूला को विक्षिप्त-जैसा बना दिया।
जिसे अपने-आप पर भरोसा नहीं होता, उसके लिए पग-पग पर विक्षेप की परिस्थिति निर्मित हो जाती है। मनुष्य अपनी शक्ति के सहारे जीना क्यों पसन्द नहीं करता? उसे अपनी ओर निहारना क्यों नहीं अच्छा लगता? दूसरों की ओर निहारकर क्या वह अपनी शक्ति को कुंठा की कारा में कैद नहीं कर देता? पर यह मानवीय दुर्बलता है। इस दुर्बलता से उबारने के लिए ही भगवान् महावीर ने आत्म-दीप की लौ जलाई थी।
मध्याह्न का सूर्य पूरी तीव्रता से तप रहा था। धरती का हर कोना प्रकाश की आभा से चमक उठा था। हर मनुष्य का शरीर प्रस्वेद की बूंदों से अभिषिक्त हो रहा था। उस समय धनावह बाजार से छुट्टी पाकर घर आया। नौकर सब चले गए थे। पैर धोने के लिए जल लाने वाला भी कोई नहीं था। पूरा घर खाली था। चंदना ने श्रेष्ठी को देखा। वह पानी लेकर पैर धुलाने आई। श्रेष्ठी ने उसे रोका। पर वह आग्रहपूर्वक श्रेष्ठी के पैर धोने लगी। उस समय उसकी केश-राशि विकीर्ण होकर भूमि को छूने लगी। उसे कीचड़ से बचाने के लिए श्रेष्ठी ने उसे अपने लीला-काष्ठ से उठा लिया और व्यवस्थित कर दिया। मूला वातायन में बैठी-बैठी यह सब देख रही थी। श्रेष्ठी के मन में कोई पाप नहीं था और चंदना का मन भी निष्पाप था। पाप भरा था मूला के मन में। वह जाग उठा।
धनावह विश्राम कर फिर बाजार में चला गया। मूला घर के भीतर आई। नौकर को भेजकर नाई को बुलाया। चंदना को सिर मुंडवा दिया। हाथ-पैरों में बेड़ियां डाल दीं। एक ओरे में बिठा, उसका दरवाजा बन्द कर ताला लगा दिया। दास-दासियों को कड़ा निर्देश दे दिया कि इस घटना के बारे में श्रेष्ठी को कोई कुछ भी न कहे और न चंदना की उपस्थिति का अता-पता बताए। यदि किसी ने इस निर्देश की अवहेलना की तो उसके प्राण सुरक्षित नहीं होंगे। इतना निर्देश दे वह मायके चली गई।
अपराह्न के भोजन का समय। श्रेष्ठी घर पर आया। भोजन के समय चंदना पास रहती थी। आज वह दिखाई नहीं दी। श्रेष्ठी ने पूछा, 'मूला कहां है? चंदना कहां है?' सबसे एक ही उत्तर मिला, सेठानी मायके गई हैं। चंदना का 'पता नहीं।'
श्रेष्ठी ने सोचा, 'चंदना कहीं क्रीड़ा कर रही होगी या प्रासाद के ऊपरी कक्ष में बैठी होगी।' श्रेष्ठी दुकान के कार्य से निवृत्त होकर रात को फिर घर आया। चंदना को वहां नहीं देखा। फिर पूछा और वही उत्तर मिला। श्रेष्ठी ने सोचा, जल्दी सो गई होगी।
दूसरे दिन भी उसे नहीं देखा। श्रेष्ठी ने उसी कल्पना से अपने मन का समाधान कर लिया। तीसरे दिन भी वह दिखाई नहीं दी। तब श्रेष्ठी गम्भीर हो गया। उसने दास-दासियों को एकत्र कर कहा, 'बताओ, चंदना कहां है?' वे सब दुविधा में पड़ गए। बताएं तो मौत और न बताएं तो मौत। एक ओर सेठानी का भय और दूसरी ओर श्रेष्ठी का भय। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि वे क्या करें? एक बूढ़ी दासी ने साहस बटोरकर सबकी समस्या सुलझा दी। जो मृत्यु के भय को चीर देता है, वह अपनी ही नहीं, अनेकों की समस्या सुलझा देता है। उस स्थविरा दासी ने कहा, 'चंदना इस ओरे में बन्द है।'