
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
कुछ दिन बीते। इन्द्रियविषयों की सुलभता। मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस आदि पांचों विषयों ने अपना प्रभाव डाला और उसकी कामवृत्ति जागृत हो गई। अब वह कोशा का सहवास पाने के लिए आतुर था। अवसर देखकर एक दिन अपनी भावना को कोशा के सामने रख दिया। कोशा तो पहले से ही संभली हुई थी। वह नहीं चाहती थी कि कोई मुनि उसके कारण संयम-भ्रष्ट बने। मुनि को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने मुनि से कहा यदि आप मुझे पाना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त पूरी करनी होगी। नेपाल से रत्म-कम्बल को लाना होगा। काम-भावना की अभीप्सा ने मुनि को नेपाल जाने के लिए विवश कर दिया। बरसात का मौसम। मार्गगत सैकड़ों कठिनाइयां और चतुर्मास के बीच विहार। जैसे-तैसे अनेक कष्टों को सहकर मुनि नेपाल पहुंचा और रत्न कम्बल लेकर पुनः आ गया। भीतर ही भीतर वह बड़ा प्रसन्न हो रहा था कि आज उसकी मनोभावना सफल होगी। मुनि ने रत्न कम्बल कोशा को दी। किन्तु कोशा ने मुनि के देखते-देखते कीचड़ से सने हुए पैरों को रत्न कम्बल से पोंछा और उसे नाली में फेक दिया। इस घटना को मुनि विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया। उसके मन पर एक गहरी प्रतिक्रिया हुई कि कितने कष्टों को सहकर मैं इसे यहां लाया और उसका यह दुरुपयोग! बात कुछ समझ में नहीं आई। अन्त में उसने कोशा से पूछ ही लिया भद्रे! तुमने यह क्या किया? इस बहुमूल्य कम्बल का क्या यही उपयोग था? कोशा ने व्यंग्य को भाषा में कहा-संयम रत्न से बढ़कर रत्नकम्बल कौन-सी अमूल्य वस्तु है? आपने तो तुच्छ कामभोगों के लिए संयमरत्न जैसी अनमोल वस्तु को भी छोड़ दिया। फिर रत्नकम्बल है ही क्या? कोशा के इन वाक्यों ने मुनि के अन्तःकरण को बींध दिया। पुनः वह संयम में स्थिर हो गया। उसे आचार्य के 'महादुष्कर' कथन की स्मृति हो आई जिसके कारण उसने यह प्रपंच रचा था। अन्त में वह आचार्य के पास आया और कृत दोष की आलोचना कर के शुद्ध हो गया।
अब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है-१. दिव्य-देवता संबंधी २. मानुषिक-मनुष्य सबंधी ३. तिर्यग्यौनिक पशु-पक्षी संबंधी। इस त्रिविध मैथुन सेवन का तीन करण और तीन योग से यावज्जीवनार्थ परित्याग करने पर ब्रह्मचर्य के ३ x ३ x ३ = २७ भंग बन जाते हैं।
ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल वस्ति-नियमन ही नहीं, केवल दैहिक भोग से विरमण ही नहीं, उसकी पूर्णता ब्रह्म-आत्मा में रमण करने से होती है। इस साधना के लिए मन पर नियंत्रण और भावों का परिष्कार अपेक्षित होता है। जिसने यह साधना सिद्ध कर ली, वह उत्तम तपस्वी है। प्रतिकूल स्थितियों को सहना अपेक्षाकृत सरल है किन्तु मनोनुकूल स्थितियों में मन का संयम रखना कठिन होता है। अब्रह्मचर्य से शक्तिक्षय और ब्रह्मचर्य से शक्तिसंचय होता है, शक्ति की रक्षा होती है। अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्यों में वीर्यवत्ता आवश्यक होती है और ब्रह्मचर्य से वह सुचारु रूप से प्राप्त होती है। इसलिए ब्रह्मचर्य को उत्तम तप की संज्ञा देना सार्थक प्रतीत होता है।
ममत्व-विसर्जनम् अपरिग्रहः
३१ जुलाई १९९०। रात्रिकालीन प्रवचन का विषय था- 'जीविका और जीवन'। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ एवं आचार्यश्री तुलसी के प्रवचन को सुनकर एक दिगम्बर भाई आया और बोला-महाराजजी! मैंने आपका प्रवचन सुना। प्रवचन सुनने पर मुझे जापान की एक घटना याद आ गई। वह घटना इस प्रकार है- सन् १९३६ की बात है। जापान के एक शहर में एक साइकिल का कारखाना था। कारखाने के मालिक ने ७ भारतीय व्यक्तियों को भोजन के लिए निमंत्रित किया। भोजन के समय मिलमालिक एवं भारतीयों के बीच अनौपचारिक वार्तालाप शुरू हो गया।
भारतीय– आपका इस कारखाने में कितना पैसा लगा है?
मिलमालिक– इसमें तीन लाख येन (जापान का सिक्का) लगे हैं।
भारतीय– इस कारखाने से कितनी आमदनी प्राप्त होती है?
मिलमालिक– साठ येन प्रतिमाह की आमदनी है।
भारतीय– अगर इतना पेसा आप बैंक में जमा कर दें तो आपकी आमदनी कितनी बढ़ सकती है।
मिलमालिक– अरे भारतवासियो! आप ऐसा सोचते हैं इसीलिए गुलाम हैं। अगर मुझे तीन हजार येन की आमदनी प्राप्त हो तो भी मैं अभी जो जिन्दगी गुजार रहा हूं, इससे ज्यादा अच्छी जिन्दगी नहीं गुजार सकता। सुनिए, साठ येन में से तीस येन मैं सरकार को चन्दे में देता हूं। तीस येन बचते हैं। आपको मालूम होना चाहिए यहां एक मजदूर की मजदूरी प्रतिदिन आधा येन है। आधा येन में हमारा मजदूर खुशहाल है। मैं कितना खुशनसीब हूं कि मुझे प्रतिदिन एक येन की प्राप्ति होती है।