संतोष को अपनाकर करें इच्छाओं का परिमार्जन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संतोष को अपनाकर करें इच्छाओं का परिमार्जन : आचार्यश्री महाश्रमण

अध्यात्म शक्ति के पुरोधा युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ मघरीखाडा से मंगल प्रस्थान कर चोटिला स्थित जलाराम मंदिर परिसर में पधारे। पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए शक्तिपुंज ने फरमाया कि आदमी के मन में लोभ नाम की वृत्ति या लोभ नाम का कषाय दशम गुणस्थान तक विद्यमान रहता है। भले ही वह वहां कमजोर अवस्था में हो, परंतु वहां भी लोभ का अस्तित्व बना रहता है। जब लोभ उभरता है, तो आदमी विविध अपराधों में प्रवृत्त हो सकता है। वह हिंसा-हत्या जैसे कृत्यों में जा सकता है और मृषावाद जैसे अनेक कार्य लोभ के प्रभाव से कर सकता है। गृहस्थ जीवन में परिग्रह भी होता है, अर्थार्जन के प्रयास में आदमी कई बार अशुद्ध साधनों का सहारा ले सकता है। गृहस्थ के लिए धन एक महत्वपूर्ण आयाम है, तो धर्म भी एक महत्वपूर्ण आयाम है।
गुरुदेव श्री तुलसी ने अणुव्रत की बात बताई। अणुव्रत के छोटे-छोटे नियमों से आदमी का जीवन बेहतर बन सकता है। हर धर्म को मानने वाला अणुव्रत को अपना सकता है। अणुव्रत आदमी के घर में रहे, बाजार में रहे, विद्यालयों में, चिकित्सालयों में रहे अर्थात् आदमी के जीवन में रहे। जीवन में नैतिकता, अहिंसा और संयम का समावेश होना चाहिए। लोभ एक ऐसा तत्व है, जो व्यक्ति को अपराध और असंयम की ओर प्रेरित कर सकता है।
कार्य में कारण भले ही परोक्ष हो, परंतु वही कार्य को जन्म देता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी प्रियता और अप्रियता की संवेदना से मुक्त प्रेक्षाध्यान का अभ्यास कराते थे, ताकि व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त रह सके। ध्यान के माध्यम से हम अपनी भीतरी यात्रा कर सकते हैं और वीतरागता की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास कर सकते हैं। लोभी को यदि कोई सोने-चांदी का पर्वत भी दे दे तो भी उसका लोभ समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि इच्छाएं आकाश के समान अनंत होती है। संतोष को अपनाकर इच्छाओं का परिमार्जन करें, भोग और उपभोग का नियंत्रण करें, ताकि लोभ कम हो सके। साधु को भोजन मिले तो ठीक है, न मिले तो भी ठीक है। भोजन मिलने से शरीर को पोषण मिलता है, और न मिलने पर तपस्या को पोषण मिलता है। साधु दोनों ही स्थितियों में संतोष रखते हैं।
जो व्यक्ति संतोष में रहता है, वह पूजनीय होता है। असंतोष में रहने वाले मूढ़ होते हैं। विद्वान लोग संतोष को धारण करते हैं। असंतोष का कोई अंत नहीं है। इसलिए, संतोष ही परम सुख है। संतोष के सामने सभी धन धूल के समान हैं। हमें प्रयास करना चाहिए कि संतोष का धन हमारे पास रहे। जलाराम मंदिर के ट्रस्टी व महामंत्री दामजी भाई राठौड़ ने तथा जैन समाज की ओर से पारसभाई ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी।