प्रियता और अप्रियता के संवेदन से ऊपर उठने का करें अभ्यास : आचार्यश्री महाश्रमण
सन् 2024 का अंतिम दिन, 31 दिसंबर। तेरापंथ के महासूर्य आचार्य श्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ बारह किलोमीटर का विहार कर सायला में स्थित श्री राज सोभाग आश्रम में पधारे। महासाधक ने साधना के सूत्रों की व्याख्या करते हुए फरमाया कि आगम साहित्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आगम के स्वाध्याय से आध्यात्मिक पथदर्शन, तत्व बोध और जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। आगमों में एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'उत्तराध्ययन' है, जिसमें 36 अध्ययन हैं। इस आगम में एक ओर तत्व ज्ञान की बातें मिलती हैं तो दूसरी ओर आध्यात्मिक साधना के निर्देश। कथानकों और घटनाओं के माध्यम से गहरी बातें समझाई गई हैं। साधु को परिषह सहने वाला, विनय का शिक्षण देने वाला, बहुश्रुत की महिमा को मंडित करने वाला और ब्रह्मसाधना का परिचायक बताया गया है। इस आगम के 32वें अध्ययन में एक श्लोक आता है: रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति॥
इस श्लोक का अर्थ बताते हुए आचार्यश्री ने कहा कि हमारी चेतना में राग और द्वेष के भाव अनादि काल से परिणत हो रहे हैं। अनगिनत जन्मों से आत्मा इन भावों के कारण जन्म-मरण के चक्र में बंधी हुई है। राग-द्वेष कर्म के बीज हैं, और मोहनीय कर्म इनमें सबसे मुख्य है। पाप कर्मों के पीछे मोहनीय कर्म की ही भूमिका होती है, जो आत्मा में विकृति उत्पन्न करता है। हम विकृति से प्रवृत्ति की ओर आएं और राग-द्वेष से मुक्त होकर स्वभाव में स्थित हों। प्रियता और अप्रियता के संवेदन से ऊपर उठने का अभ्यास करें। अहिंसा, संयम और तप धर्म के उत्कृष्ट मंगल हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समितियां और तीन गुप्तियां साधना की महान संपदाएं हैं। त्याग से व्यक्ति महान बनता है। सन्यास सबसे बड़ा हीरा है। व्रतों को स्वाध्याय और ध्यान के माध्यम से सुदृढ़ और पुष्ट किया जा सकता है। आगम और अच्छे ग्रंथों के अध्ययन से संयम रूपी वृक्ष को पोषण मिलता है।
राग-द्वेष साधना के बाधक तत्व हैं। सम्यक्त्व का जीवन में विशेष महत्त्व है। सम्यक्त्व के समान कोई बड़ा रत्न, मित्र, भाई या लाभ नहीं है। हमारे जीवन का दृष्टिकोण आध्यात्मिक बनना चाहिए। विनम्रता और अनाग्रह का भाव रखना चाहिए। जहां से भी सच्ची और कल्याणकारी बात मिले, उसे ग्रहण करना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि हम आज श्रीमद् राजचंद्र से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण स्थान में हैं, जहां अध्यात्म की साधना सतत चलती है। आश्रम के संचालक विक्रम शाह एवं साधक नलीन कोठारी ने अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।