धर्म की साधना है मानव जीवन की सफलता : आचार्य श्री महाश्रमण
लीमड़ी प्रवास के दौरान युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी का श्री अजरामर गुरु गादी तीर्थधाम में आगमन हुआ। इस अवसर पर अजरामर संप्रदाय के गच्छाधिपति आचार्यश्री भावचन्द्रजी के साथ उनका आध्यात्मिक संवाद हुआ। आचार्य श्री महाश्रमण जी ने अपने प्रवचन में कहा, 'धर्म से बड़ा दूसरा कोई मंगल नहीं। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म हैं। जो व्यक्ति धर्म में मन लगाकर साधना करता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता धर्म की साधना में निहित है।''
उन्होंने जैन परंपराओं में विद्यमान विविधताओं और समानताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अजरामर संप्रदाय और तेरापंथ परंपरा में मुखवस्त्रिका, अमूर्तिपूजा और बत्तीस आगमों की समान मान्यताएं हैं। पूज्य प्रवर ने तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु के जीवन, तेरापंथ के नामकरण और जैन शासन की अन्य ऐतिहासिक घटनाओं की चर्चा की। आचार्यश्री भावचन्द्रजी ने कहा, 'आज का दिन पवित्र और श्रेष्ठ है। तेरापंथ समाज और अजरामर संप्रदाय के बीच गहरा संबंध है। तेरापंथ के आचार्यों, साधु-साध्वियों, और श्रावकों से मिलने और उनके साहित्य को पढ़ने का अवसर प्राप्त होता रहता है। आचार्य श्री तुलसी और आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का साहित्यिक योगदान अतुलनीय है। तेरापंथ साधु-साध्वियों का पूरे भारत, नेपाल, और भूटान में विचरण जैन धर्म की व्यापक सेवा को दर्शाता है।'
उन्होंने आगे कहा, 'हम सब एक हैं, नेक हैं और साथ हैं। उपकरण भले ही अलग-अलग हों, लेकिन यदि अंतःकरण शुद्ध हो, तो यह भेदभाव भी सौंदर्य में बदल जाता है।' आचार्यश्री भावचन्द्रजी ने आचार्य श्री महाश्रमण जी को 'पुण्य सम्राट' के अलंकरण से सम्मानित करने की घोषणा की। लेकिन अलंकरण और विशेषणों से स्वयं को दूर रखने वाले आचार्य श्री महाश्रमण जी ने इसे विनम्रता से अस्वीकार करते हुए अजरामर संप्रदाय के वात्सल्य को स्वीकार किया। यह आध्यात्मिक मिलन परस्पर सद्भावना और एकता का संदेश लेकर आया। इस अवसर पर दोनों आचार्यों ने धर्म, साहित्य, इतिहास और जैन शासन के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श किया। सभा में मुख्यमुनि श्रीमहावीरकुमार जी, विवेक मुनि जी महाराज और वरिष्ठ श्रावक भरत भाई ने भी अपने विचार रखे। यह ऐतिहासिक मिलन न केवल जैन समाज के लिए प्रेरणादायक था, बल्कि आध्यात्मिक एकता और समरसता को भी नई ऊंचाई पर ले गया।