संबोधि
२६. देहस्योपाधिभेदेन, यो वात्मानं जुगुप्सते।
नात्मा तेनावबुद्धोऽस्ति, नात्मवादी स मन्यताम्।।
शरीर की भिन्नता होने के कारण जो दूसरी आत्मा से घृणा करता है, उसने आत्मा को नहीं जाना। उसे आत्मवादी नहीं मानना चाहिए।
शरीर की भिन्नता के पीछे आत्मा की भिन्नता नहीं है। आत्मा एक है, सदृश है। जिसे आत्मा ज्ञात है, दृष्ट है वह आकृति को महत्त्व नहीं देता और न शरीर-भेद के आधार पर किसी का आदर और अनादर करता है। शरीर को महत्त्व देने का अर्थ है-राग-द्वेष को महत्त्व देना। देहाश्रित सम्मान व अपमान दोनों ही उसके लिए बंधन के कारण होते हैं। आत्मवादी बाह्य को प्राधान्य नहीं देता। वह जानता है, समझता है कि यह आकार-भेद है, चैतन्य भेद नहीं किन्तु अनात्म-द्रष्टा की दृष्टि ऊपर की ओर नहीं उठती। वह इन्द्रियों के पार के जगत् को देखने में सक्षम नहीं होती। इसलिए वह बाहर ही उलझा रहता है।
जनक की सभा में स्वयं को आत्मवादी मानने वाले अनेक विद्वज्जन सम्मिलित हुए। तर्क-वितर्क भी चल रहे थे। अष्टावक्र मुनि के पिता भी वहीं थे। वे पराजित हो रहे थे। अष्टावक्र को पता चला। वे जनक की सभा में आए। विद्वानों ने देखा अष्टावक्र को, जो आठ स्थानों से टेड़े-मेढ़े थे। सभी विद्वान खिल-खिलाकर हंसने लगे। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा- 'क्या यह चमारों की सभा है? केवल मेरी चमड़ी को देखने वाले चमार ही हो सकते हैं।' सभी सभासद् अवाक् रह गए। जनक को लगा यह बालक ज्ञानी है। उसने सिंहासन से नीचे उतर कर निवेदन किया-महलों में पधारें और मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें। 'अष्टावक्र गीता' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
उम्मर खय्याम ने कहा है-जब मैं जवान था तो बहुत पंडितों के द्वार पर गया, वे बड़े ज्ञानी थे। मैंने उनकी चर्चा सुनी, पक्ष-विपक्ष में विवाद सुने। जिस दरवाजे से गया, उसी दरवाजे से वापस लौट आया।
मेघः प्राह
२७. विशालवपुषः केचित्, केचित् तुच्छशरीरकाः।
किमस्ति सदृशो दोषः, तेषां प्राणातिपातने?
मेघ बोला-कुछ जीवों का शरीर विशाल है और कुछ जीवों का शरीर छोटा है। क्या उनकी हिंसा में दोष एक जैसा होता है?