धर्म है उत्कृष्ट मंगल
पाप बन्धन का मूल कारण अन्तरंग परिग्रह है, मूर्च्छा है। परन्तु मूर्च्छा को परिपुष्ट करने में बाह्य परिग्रह का भी योगदान मिल जाता है। अतः उसका भी समुचित परिवर्जन आवश्यक हो जाता है। दूसरी बात, जिसके मूर्च्छा नहीं है, वह बाह्य पदार्थों का अनपेक्षित संग्रह क्यों करेगा? 'अनासक्ति शब्द को ओट में (हम तो भीतर से अनासक्त हैं, यह कहते हुए) पदार्थ-संग्रह और विषयभोग करने वाले व्यक्ति कभी-कभी आत्मछली बन जाते हैं। वस्तुतः अनासक्ति हो तो वह स्तुत्य और अभिनन्दनीय है।
मुनि पूर्णतया अपरिग्रही होता है। श्रावक उसके स्थान पर इच्छा परिमाण व्रत को स्वीकार करता है, वह नवधा बाह्य परिग्रह का सीमाकरण करता है और उसके माध्यम से अन्तरंग परिग्रह को कृश करने की साधना करता है।
क्षेत्र (खुली भूमि), वास्तु (मकान आदि), हिरण्य (चांदी), सुवर्ण, धन, धान्य, द्विपद (दास आदि), चतुष्पद (गाय, भैंस आदि), कुप्य (तांबा, पीतल आदि धातु तथा अन्य गृहसामग्री, यान-वाहन आदि) यह नौ प्रकार का परिग्रह श्रावक के लिए संयमनीय होता है।
संसार में अनेक प्रकार की शक्तियां हैं। उनमें अर्थ (धन) भी एक शक्ति है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थ सुअर्थ रहे, वहां तक तो कोई चिन्ता नहीं, परन्तु जहां अर्थ अनर्थ करने वाला बन जाता है, तब विचारणीय स्थिति बन जाती है, इस संदर्भ में भिक्षु ग्रन्थरलाकर का निम्नांकित पद्य मननीय है–
प्रेम घटारण सजना रो, दुरगत नो दातार।
अणचिन्त्या अनर्थ करे, धन ने पड़ो धिकार।।
जो स्वजनों के प्रेम को घटाता है, जीव की दुर्गति करता है, अचिन्तित अनर्थ पैदा करता है, ऐसे धन को धिक्कार।
अर्थार्जन में साधनशुद्धि का संकल्प भी अपरिग्रहीवृत्ति को पुष्ट करता है। दूसरों का शोषण कर पैसा इकट्ठा कर धनवान् बन जाना और नाम ख्याति के लिए कुछ दान देकर दानी कहलाना कौन-सा स्पृहणीय कार्य है? ऐसे दान को दूर से ही नमस्कार कर पहले अर्थार्जन की शुद्धि पर ध्यान दिया जाना चाहिए, धोखाधड़ी और शोषण का परित्याग किया जाना चाहिए।
व्यापारी ने नयी-नयी कपड़े की दुकान खोली। बार-बार उसके मन में एक ही विचार आता था कि दुकान का विकास कैसे हो? कमाई ज्यादा कैसे हो? येन-केन प्रकारेण वह धनाढ्यों को सूची में अपना नाम पढ़ने के लिए समुत्सुक था।
आवश्यकता की पूर्ति एक बात है और आकांक्षा की पूर्ति दूसरी बात है। आवश्यकता पूर्ति की मांग को असंगत नहीं कहा जा सकता। किन्तु महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति और वह भी अवैध तरीकों से समुचित कैसे हो सकती है?
रात्रि का प्रथम प्रहर। व्यापारी ने दुकान को बढ़ाया (बन्द किया) और घर चला आया। भोजन करने के बाद शयनार्थ वह शय्या पर पहुंच गया। वह लेटा, पर नींद नहीं आई। संकल्प-विकल्पों का सिलसिला चालू था। उन्हें विराम भी उसने कहां दिया था? न तो उसने शयन से पूर्व नमस्कार महामंत्र जैसे पवित्र मन्त्र का स्मरण किया और न ही उसने आत्म निरीक्षण का प्रयोग किया। सत्साहित्य का स्वाध्याय भी नहीं किया! परिग्रह (कमाई) का संकल्प उसकी तृष्णाग्नि को प्रदीप्त कर रहा था। करवटें बदलते-बदलते आखिर उसे नींद अवश्य आई, पर गहरी और निश्चिन्तता भरी नींद का सुख उसे सुलभ नहीं हुआ। जिन विचारों को उधेड़बुन में वह सोया था, उन्हीं को अब वह चलचित्र के दृश्यों की भांति सपने के रूप में देखने लगा। वह देखता है कि प्रातःकाल का समय हो गया है। स्नान और प्रातराश कर मैं दुकान में पहुंच गया हूं। एक ग्रामीण आया है और वह मुझे कपड़ा देने के लिए कह रहा है। उस (ग्रामीण) ने पूछा-सेठ साहिब! अमुक कपड़े का क्या दाम लेंगे?
वस्तुतः मूल्य था प्रतिमीटर दो रुपया, परन्तु व्यापारी ने सोचा, अभी पैसा कमाने का अच्छा मौका है। यह ग्राहक तो भोला पंछी है। यह क्या समझेगा होशियारी को। दुकानदार ने कहा- चार रुपया एक मीटर। दुगुना मूल्य बता दिया। 'सेठ साहिब! यह तो बहुत ज्यादा कीमत है, मैं कैसे चुका पाऊंगा?'
'अरे! तुम्हें लेना हो तो लो, सुबह का समय है, बकवास मत करो।'