धर्म है उत्कृष्ट मंगल
बेचारा ग्रामीण मजदूर था। लड़के की शादी सामने थी। उसने कहा ठीक है सेठजी! पांच मीटर कपड़ा दे दीजिए। भीतर में हर्ष विभोर और बाहर से नाराजगी दिखाते हुए सेठ ने ग्रामीण द्वारा याचित कपड़ा हाथ में लिया और कुछ कम मापते हुए उसने उसे फाड़ा। (यह सब कुछ स्वप्न में हो रहा है।) ज्योंही वस्त्र के फटने की 'चर-चर' आवाज आइ, व्यापारी की नींद टूट गई, आंखें खुल गई। उसने सोचा- अरे यह आवाज कहां से आई? इधर झांका, उधर झांका आखिर पता चला अपनी ही धोती अपने हाथ में आ गई और उसी को फाड़ डाला।
अपरिग्रह की पुष्टि के लिए आवश्यक है कि साधक शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन इन्द्रिय-विषयों के प्रति होने वाले प्रियता और अप्रियता के भावों से बचे, वैसा प्रयास और भावना का अभ्यास करे। अल्प, बहु, अणु, स्थूल, सचित्त और अचित्त इस छह प्रकार के परिग्रह का तीन कारण, तीन योग से प्रत्याख्यान करने पर ५४ भंग अपरिग्रह महाव्रत के निष्पन्न होते हैं। पांच महाव्रतों के कुल २५२ भंग बनते हैं। पूरा विस्तार जानने के लिए विगत चार निबन्ध द्रष्टव्य हैं।
रात्रिभोजन विरमणव्रत
अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इस चतुर्विध आहार का रात्रि में भोग करने का तीन करण, तीन योग से प्रत्याख्यान करने पर रात्रिभोजन विरमणव्रत के ३६ भंग निष्पन्न होते हैं।
गुणस्थान : आधार और स्वरूप
आश्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्ष-कारणम्।
इतीयमार्हती द्रष्टः शेषमस्याः प्रपञ्चनम्।।
आश्रव संसार-भ्रमण का कारण है और संवर मोक्ष का कारण। यही संक्षेप में आर्हत अथवा जैन दर्शन है। बाकी सारा इसी का विस्तार है। आश्रव की क्रमिक अल्पता और संवर को क्रमिक वृद्धि पर टिका हुआ है गुणस्थान का सिद्धान्त। वास्तव में मोक्ष की साधना भी यही है कि संवर को पुष्ट करना और आश्रव को निरुद्ध करना।
गुणस्थान का अर्थ और संख्या
गुण का अर्थ है ज्ञानदर्शनचारित्रात्मा जीव का स्वभाव विशेष। स्थान का अर्थ है वे भूमिकाएं जहां तरतमता से जीव का गुण प्रकट होता है। समवायांग सूत्र में कहा गया है– कम्मविसोहिमग्गाणं पडुच्च चउद्दस जीवट्टाणा पण्णत्ता–कर्म विशोधि की मार्गणा की अपेक्षा से चौदह जीवस्थान गुणस्थान बतलाए गए हैं। वहां चौदह गुणस्थानों का नामोल्लेख भी प्राप्त है। वह इस प्रकार है-१. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादन सम्यग् दृष्टि ३. सम्यग् मिथ्यादृष्टि ४. अविरत सम्यग् दृष्टि ५. विरताविरत ६. प्रमत्त संयत ७. अप्रमत्त संयत ८. निवृत्ति बादर ६. अनिवृत्ति बादर १०. सूक्ष्मसम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगी केवली १४. अयोगी केवली।
कर्म-विशोधि की मार्गणा को 'आश्रव के अल्पीकरण' के द्वारा समझा जा सकता है। आश्रव पांच हैं- मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग। सबसे न्यूनतम विकास की भूमिका है पहला गुणस्थान। वहां पांचों आश्रव विद्यमान रहते हैं। यद्यपि पहले गुणस्थान में भी बड़ा तारतम्य होता है। पहला गुणस्थान अथवा मिथ्यात्व तीन प्रकार का होता है-
१. अनादि अपर्यवसित– जो सदा था और सदा रहेगा, यह उन जीवों में उपलब्ध होता है जो कभी-भी मोक्ष में नहीं जाएंगे।
२. अनादि सपर्यवसित– जो सदा था पर कभी वह खत्म हो जाने वाला है। यह उन जीवों में उपलब्ध होता है जो मोक्षगामी हैं। पर अभी मिथ्यादृष्टि है।
३. सादि सपर्यवसित– जिस मिथ्यात्व का प्रारम्भ भी होता है और अवसान भी होता है। यह प्रतिपाती सम्यग दृष्टि की अपेक्षा से है। यह उन जीवों में उपलब्ध होता है जो सम्यग दृष्टि को प्राप्त कर पुनः मिथ्यादृष्टि बने हैं। इसलिए उन जीवों के मिथ्यात्व की आदि भी हो गई और वे जीव अवश्य ही पुनः सम्यक्त्वी बनेंगे, इसलिए मिथ्यात्व का अन्त भी होने वाला है। पहले गुणस्थान में पांचों आश्रवों की विद्यमानता रहती है, फिर भी जितना-जितना क्षयोपशम भाव है, यत्किञ्चित् आत्मा की निर्मलता है, आश्रव की अल्पता है, वह जीव का गुण है, उसकी अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि को पहला गुणस्थान दिया गया है। दूसरा गुणस्थान वह भूमिका है जिसमें स्थित जीव मिथ्यात्व के बिलकुल निकट पहुंचा हुआ होता है, आस्वादमात्र सम्यक्त्व होता है, वर्तमान में मिथ्यात्व आश्रव नहीं, पर होने ही वाला है। मिथ्यात्व न होने के कारण तथा मिथ्यात्व के अत्यन्त निकट होने के कारण इसको दूसरी भूमिका में रखा गया है।