श्रमण महावीर

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श्रमण महावीर

'हमारे गुप्तचरों ने यह सूचना कैसे नहीं दी?' अमात्य ने भृकुटी तानते हुए कहा, 'और मैं सोचता हूं कि महाराज शतानीक को भी इसका पता नहीं है और मेरा खयाल है कि महारानी मृगावती भी इस घटना से परिचित नहीं हैं। मैं अवश्य ही इस घटना के कारण का पता लगाऊंगा।'
प्रतिहारी विजया महारानी के कक्ष में उपस्थित हो गई। महारानी ने उसकी भावभंगिमा देख उसकी उपस्थिति का कारण पूछा। वह बोली, 'देवी! मैं नन्दा के घर पर एक महत्त्वपूर्ण बात सुनकर आई हूं। क्या आप उसे जानना चाहेंगी?'
'उसका किससे सम्बन्ध है?'
'भगवान् महावीर से।'
'तब अवश्य सुनना चाहूंगी।'
विजया ने नन्दा के घर पर जो सुना वह सब कुछ सुना दिया। महारानी का मन पीड़ा से संकुल हो गया। कुछ देर बाद महाराज अन्तःपुर में आए और वे भी महारानी की पीड़ा के संभागी हो गए।
महाराज शतानीक और अमात्य सुगुप्त ने इस विषय पर मन्त्रणा की। उन्होंने उपाध्याय तथ्यवादी को बुलाया। वह बहुत बड़ा धर्मशास्त्री और ज्ञानी था। महाराज ने उसके सामने समस्या प्रस्तुत की। पर वह कोई समाधान नहीं दे सका।
महाराज खिन्न हो गए। उन्होंने उद्धत स्वर में कहा, 'अमात्यवर! मुझे लगता हे कि हमारा गुप्तचर विभाग निकम्मा हो गया है। मैं जानना चाहता हूं, इसका उत्तरदायी कौन है? क्या मेरा अमात्य इतनी बड़ी घटना की जानकारी नहीं दे पाता? क्या मेरा अधिकारी-वर्ग इतना भी नहीं जानता कि महारानी महाश्रमण पार्श्वनाथ की शिष्या हैं? क्या वह नहीं जानता कि भगवान् महावीर महारानी के ज्ञाति हैं? भगवान् हमारी राजधानी में विहार करें और उन्हें श्रमणोचित भोजन न मिले, यह सचमुच हमारे राज्य का दुर्भाग्य है। अमात्यवर ! तुम शीघ्रातिशीघ्र ऐसी व्यवस्था करो जिससे भगवान् भोजन स्वीकार करें।
अमात्य भगवान् के चरणों में उपस्थित हो गया। उसने महाराज, महारानी, अपनी पत्नी और समूचे नगर की हार्दिक भावना भगवान् के सामने प्रस्तुत की और भोजन स्वीकार करने का विनम्र अनुरोध किया। किन्तु भगवान् का मौन-भंग नहीं हुआ। अमात्य निराश हो अपने घर लौट आया।
भगवान् की चर्चा उसी क्रम में चलती रही। प्रतिदिन घरों में जाना और कुछ लिये विना वापस चले आना। लोग हैरान थे। समूचे नगर में इस बात की चर्चा फैल गई। पांचवां महीना पूरा का पूरा उपवास में बीत गया। छठे महीने के पच्चीस दिन चले गए। नगर के लोग भगवान् के भोजन का समाचार सुनने को पल-पल अधीर थे। उनकी उत्सुकता अब अधीरता में बदल गई थी। सब लोग अपना-अपना आत्मालोचन कर रहे थे। महाराज शतानीक ने भी आत्मालोचन किया। कौशाम्बी पर आक्रमण और उसकी लूट का पाप उनकी आखों के सामने आ गया। महाराज ने सोचा हो सकता है, भगवान् मेरे पापों का प्रायश्चित्त कर रहे हों।
चन्दना को अतीत की स्मृति हो आई। उसे अपना वैभवपूर्ण जीवन स्वप्न-सा लगने लगा। वह चम्पा के प्रासाद की स्मृतियों में खो गई। वे उड़द उसके सामने पड़े रहे।
आज छठे महीने का छब्बीसवां दिन था। भगवान् महावीर माधुकरी के लिए निकले। अनेक लोग उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। भगवान् धनावह के घर में गए। वे रसोई में नहीं रुके। सीधे चन्दना के सामने जा ठहरे। वह दहलीज के बीच बैठी थी। उसे किसी के आने का आभास मिला। वह खड़ी हो गई। उसने सामने देखे बिना ही कल्पना की-पिताजी लुहार को लेकर आ गए हैं। अब मेरे बन्धन टूट जाएंगे।