
श्रमण महावीर
प्राची की अपूर्व अरुणिमा। बाल-सूर्य का रक्तिम बिम्ब। सघन तिमिर क्षण भर में विलीन हो गया, जैसे उत्तका अस्तित्व कभी था ही नहीं। कितना शक्तिशाली अस्तित्व था उसका जिसने सब अस्तित्वों पर आवरण डाल रखा था।
भगवान् महावीर आज अपूर्व आभा का अनुभव कर रहे हैं। उन्हें सूर्योदय का आभास हो रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अस्तित्व पर पड़ा हुआ परदा अब फटने को तैयार है।
भगवान गोदेहिका आसन में बैठे हैं। दो दिन का उपवास है। सूर्य का आतप ले रहे हैं। शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान हैं। ध्यान की श्रेणी का आरोहण करते-करते अनावरण हो गए। कैवल्य का सूर्य सदा के लिए उदित हो गया।
कितना पुण्य था वह क्षेत्र-जंभिग्राम का बाहरी भाग। ऋजुबालिका नदी का उत्तरी तट।
जीर्ण चैत्य का ईशानकोण। श्यामाक गृहपति का खेत। वहां शालवृक्ष के नीचे कैवल्य का सूर्योदय हुआ।
कितना पुण्य या वह काल वैशाख शुक्ला दशमी का दिन। चौथा प्रहर। विजय मुहूर्त। चंद्रमा के साथ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग। इन्हीं क्षणों में हुआ कैवल्य का सूर्योदय।
भगवान अब केवली हो गए सर्वज्ञ और सर्वदर्शी। उनमें सब द्रव्यों और सब पर्यायों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो गई। उनकी अनावृत चेतना में सूक्ष्म, व्यवहित और दूरस्थ पदार्थ अपने आप प्रतिबिंबित होने लगे। न कोई जिज्ञासा और न कोई जानने का प्रयत्न। सब कुछ सहज और सब कुछ आत्मस्थ। शांत सिन्धु की भांति निस्पंद और निश्चेष्ट। विघ्नों का ज्वार-भाटा विलीन हो गया। न तूफान, न ऊर्मियां और न तुमुल कोलाहल। शांत, शांत और प्रशांत।
कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् भगवान् मुहूर्त भर वहां ठहरे, फिर लक्ष्य की ओर गतिमान हो गए।
तीर्थ और तीर्थंकर
भगवान् महावीर वैशाख शुक्ला एकादशी को मध्यम पावा पहुंचे। महासेन उद्यान में ठहरे। अन्तर में अकेले और बाहर भी अकेले। न कोई शिष्य और न कोई सहायक। इतने दिनों तक भगवान् साधना में व्यस्त थे। वह निष्पन्न हो गई। अब उनके पास समय ही समय है। उनके मन में प्राणियों के कल्याण की सहज प्रेरणा स्फूर्त हो रही है। मध्यम पावा में सोमिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उसे संपन्न करने के लिए ग्यारह यज्ञविद् विद्वान् आए। इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीनों सगे भाई थे। इनका गोत्र था गौतम। ये मगध के गोबर गांव में रहते थे। इनके पांच-पांच सौ शिष्य थे।
दो विद्वान् कोलाग सन्निवेश से आये। एक का नाम था व्यक्त और दूसरे का सुधर्मा। व्यक्त का गोत्र था भारद्वाज और सुधर्मा का गोत्र वा अग्नि वैश्यायन। इनके भी पांच-पांच सौ शिष्य थे।
दो विद्वान् मौर्य सन्निवेश से आए। एक का नाम था मंडित और दूसरे का मौर्यपुत्र। मंडित का गोत्र था वाशिष्ठ और मौर्यपुत्र का गोत्र था काश्यप। इनके साढ़े तीन सौ, साढ़े तीन सौ शिष्य थे।
अकंपित मिथिला से, अचलभ्राता कौशल से, मेतार्य तुंगिक से और प्रभास राजगृह से आए। इनमें पहले का गोत्र गौतम, दूसरे का हारित और शेष दोनों का कौडिन्य था। इनके तीन-तीन सौ शिष्य थे।
ये ग्यारह विद्वान् और इनके ४४०० शिष्य सोमिल की यज्ञवाटिका में उपस्थित थे।
भगवान महावीर ने देखा, अब जनता को अहिंसा की दिशा में प्रेरित करना है। जो उसका महाव्रती बनना चाहे, उसके लिए महाव्रती और जो अणुव्रती बनना चाहे उसके लिए अणुव्रती बनने का पथ प्रशस्त करना है। बलि, दासता आदि सामाजिक हिंसा का उन्मूलन करना है। इस कार्य के लिए मुझे कुछ सहयोगी व्यक्ति चाहिए। वे व्यक्ति यदि ब्राह्मण वर्ग के हों तो और अधिक उपयुक्त होगा।