
मर्यादा महोत्सव : वासंती पुष्पपुंज
तेरापंथ जैन-समाज का एक छोटा सा किंतु शक्ति संपन्न आध्यात्मिक-धार्मिक संगठन है। इसके आदि पुरुष थे आचार्य श्री भिक्षु, जो अपने समय में मारवाड़ के संत भीखणजी के नाम से प्रख्यात हुए। भिक्षु भगवान महावीर की परंपरा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उनका चिंतन वीतराग वाणी और विशुद्ध आचार पर केन्द्रित था। उनका सपना था सम्यक् आचार, विचार और विशुद्ध व्यवहार पर स्थित एक पारदर्शी, मजबूत और संगठित धर्मसंघ का निर्माण। इसके लिए उन्होंने त्याग और संयम के पवित्र जल से संघ की जड़ों को सींचा। 'मर पूरा देस्यां, चारित्र चोखो पालस्यां' इस इस्पाती संकल्प की ईंट उन्होंने संघ-इमारत की नींव में स्थापित की। लगता है आचार्य भिक्षु द्वारा तेरापंथ की प्राण-प्रतिष्ठा जिनशासन की सुनहरी नियति के पुनर्निर्माण के लिए ही हुई थी। उस समय किसने कल्पना की थी कि भिक्षु और उनके साथ क्रांति पथ पर अग्रसर तेरह संतों का यह काफिला परंपरित शक्तिशाली विशाल धर्मसंघों के सामने चुनौती बन कर बड़ा हो जाएगा। उस समय किसे पता था संत भीखण जी का यह छोटा सा समुदाय कितने मील के पत्थरों को पार करेगा।
आज तेरापंथ एक तेजस्वी प्राणवान और प्रगतिशील धार्मिक संगठन के रूप में प्रतिष्ठित है। क्योंकि आचार्य श्री भिक्षु ने तथा उनकी उत्तरवर्ती आचार्य परंपरा ने संघ के प्रत्येक सदस्य को आत्मानुशासन, आत्म नियंत्रण और आत्म संयम का बोधपाठ दिया तथा प्रशिक्षित किया। तेरापंथ की शक्ति का स्रोत है - श्रुत की आराधना, संयम की साधना, तपस्या एवं श्रमशीलता की चतुष्पदी। इसके साथ अनुशासन, मर्यादा, अहंकार व ममकार का विसर्जन, श्रद्धा, सेवा, विनय और समर्पण - ये तत्व संघ की प्रगतिशीलता में विशेष योगभूत बने हैं। आचार्यश्री भिक्षु की दृष्टि में विस्तार का नहीं, परिष्कार का मूल्य था। उन्होंने आकार का नहीं, आचार का महत्व बताया। जड़ता का नहीं, चेतना का महत्व बताया। पूजा-पतिष्ठा का नहीं, साधना और निष्ठा का महत्व बताया था।
अनुशासन और व्यवस्था
अच्छा संगठन वह होता है, जहां सुशासन और सुव्यवस्थाएं होती हैं। राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र के अनुसार सुशासन के छ: बिंदु हैं-
1. एकाउंटेबिलिटी - उत्तरदायित्व
2. ट्रांसपेरेंसी - पारदर्शिता
3. रूल ऑफ ला - कानून का शासन
4. रेस्पांसिवनेस - अनुकूल प्रतिक्रियात्मकता
5. इक्विटेबल गवर्नेंस - निष्पक्ष शासन
6. इंप्रूविंग गवर्नेंस - शासन में सुधार का अवकाश
वर्तमान के लोकप्रिय शब्द हैं-
एफिशिएंसी एण्ड इफेक्टिवनेस। व्यवस्था का नेतृत्व पक्ष के लिए जरूरी है कि प्रबंधन में सब की सहभागिता, प्रभावोत्पादकता तथा कौशल हो। यह शासन की एक विधा है, जिससे उसका आकलन होता है। अच्छा प्रशासक यह होता है, जो निरीक्षण करता रहता है कि वास्तव में संगठन के सदस्य और आमजन क्या चाहते हैं?
तेरापंथ की प्राण ऊर्जा
आचार्यश्री भिक्षु महान प्रशासक थे और विलक्षण संविधान निर्माता थे। उन्होंने समसायिक धर्मसंघों की दुरावस्था और दुर्बलताओं का गंभीर अध्ययन किया। अपने नवोदित धर्मसंघ को उन विकृतियों से बचाने का निश्वय किया। वर्षों की साधना और तपस्या के पश्यात् उन्होंने संघ फलक पर अपने अनुभवों की स्याही से कुछ धाराएं लिखी। वे ही धाराएं तेरापंथ के भाल पर अंकित भाग्य लिपि की अमिट रेखाएं बन गई। भिक्षु स्वामी द्वारा लिखित मर्यादाएं मात्र कानून का शासन नहीं है, अपितु संघ के प्रत्येक सदस्य को न्याय, संविभाग और समत्वपूर्ण व्यवहार मिले, संघ के सदस्यों में आपसी प्रेम रहे, कलह-कदाग्रह न हो तथा संघ में सुव्यवस्था बनी रहे, इस प्रशस्त चिंतन से आचार्य श्री भिक्षु ने मर्यादाएं लिखीं। उन मर्यादाओं को उन्होंने अपने अनुयायियों पर थोपा नहीं, प्रत्युत सबकी सहमति पूर्वक लागू किया। वे मर्यादाएं ही संघ की प्राणशक्ति है।
मर्यादा महोत्सव श्रद्धा, सेवा, साधना और समर्पण का अनोखा उत्सव है। अनुशासन, विजय और वात्सल्य का अलौकिक दृश्य है। यह तेरापंथ का पवित्र कुंभ का मेला है। इस समय संघ के सैकड़ों साधु-साध्वियों और हजारों श्रावक-श्राविकों का समागम होता है। अतीत के पर्यवेक्षण के क्रम में संघीय गति-प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत होता है, भविष्य की कार्ययोजना तैयार होती है। आचार्य सब को आध्यात्मिक प्रेरणा-पाथेय प्रदान करते हैं। साधु-साध्वियां संघीय संविधान के प्रति श्रद्धा, सम्मान और अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं। संघ, संघपति, मर्यादा और संघीय अनुशासन के प्रति वे अपनी गहरी निष्ठा अभिव्यक्त करते हैं।
161वां मर्यादा महोत्सव
धर्मसंघ का 161वां मर्यादा महोत्सव संघ के एकादशम अधिशास्ता महातपस्वी आचार्यप्रवर श्री महाश्रमण की पावन सन्निधि में गुजरात की धरती पर भुज में मनाया जा रहा है। महोत्सव के त्रिदिवसीय कार्यक्रम का शुभारंभ सदा की भांति माघ शुक्ला पंचमी तिथि-वसंत पंचमी से होता है। इसी दिन से वसंत ऋतु का प्रारंभ माना जाता है। वसंत का उत्सव अर्थात प्रकृति का उत्सव। वसंत ऋतु में वह अपनी सोलह कलाओं के साथ खिल उठती है। ऋतुराज वसंत अस्वस्थ जिंदगी को स्वस्थ व रमणीय बना देता है। तेरापंथ धर्मसंघ के शास्ता संगठन के योगक्षेम के संवाहक होते हैं। इसलिए वे वसंत पंचमी के दिन अस्वस्थ, अक्षम साधु-साधिधयों की सेवा हेतु स्थापित सेवा केन्द्रों में सेवादायी साधु-साध्वियों के वर्गों समूहों की नियुक्ति करते हैं। सेवा में नियुक्त साधु-साध्वियां एक वर्ष तक अहोभाव पूर्वक रुग्ण, अक्षम साधु-साध्वियों की सेवा का दायित्व वहन करते हैं। इस प्रकार तेरापंथ के साधु-साध्वियां भविष्य के प्रति आश्वस्त, विश्वस्त, निश्चिंत और समाधिस्थ रहते हैं।
भिक्षु की पवित्र कलम से उतरा मर्यादा-पत्र आध्यात्मिक, संघीय और सामुदायिक जीवन के दर्शन का संक्षिप्त निरूपण है। यह धर्म-संघ की फुलवारी की क्यारियों को संवारने का श्रेष्ठ उपक्रम है। मर्यादा-पत्र की प्रत्येक धारा मानो एक महकता गुलदस्ता है। एक वासंती पुष्पपुंज है। आचार्य श्री भिक्षु का एक-एक आदेश उतना ही ताजगी भरा और मानव-मन को प्रफुल्लित करने वाला है, जितना कि वासंतीपुष्प। तेरापंथ के संविधान की प्रत्येक पंक्ति का अलग रंग, अलग सुगंध और अलग ही अंदाज है। तेरापंथ का संविधान यानी सामुदायिक जीवन व्यवहार की, शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व की नित्य नियमावली। भिक्षु की शिक्षाओं और आदेशों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि वे अपने समय से अनेक गुणा आगे चलते थे। उनके द्वारा निर्मित मर्यादाओं का शाश्वत मूल्य है। सात सदस्यों की उपस्थिति में लिखी गई मर्यादाएं 700 साधु-साध्वियों के लिए भी उतनी ही उपयोगी और सम्मानार्ह है। ये मर्यादाएं अनुशासन की संहिताएं हैं जो कि अन्य संघों और समुदायों के लिए भी मननीय हो सकती है।
अनुशासन है शक्ति का स्त्रोत
'शिष्य ने पूछा- गुरुदेव ! हम साधु बने हैं तो बंधन मुक्ति के लिए बने हैं, फिर मर्यादा और अनुशासन का बंधन क्यों? प्रश्न स्वाभाविक है। क्योंकि समाज व संगठन नियमों से चलते हैं, अध्यात्म नियमों से ऊपर की अवस्था है। जैनधर्म के तीर्थंकर अर्हत् कल्पातीत होते हैं। वे नियमों, व्यवस्थाओं से मुक्त होते हैं। फिर भी प्रत्येक समाज संगठन आदि की अपनी व्यवस्था होती है। नियम, उपनियम होते हैं। उससे जुड़े रहने वाले के लिए उनका पालन करना भी अनिवार्य है। संगठन की स्वस्थता, प्रगति और विकास के लिए नियम, अनुशासन आवश्यक है। नियम भी नियंत्रण शक्ति को जगाने में सहायक बनते हैं। साधना का उद्देश्य है आत्मानुशासन जगाना। तेरापंथ धर्म संघ ने अपने 264 वर्ष के सफर में जो तरक्की की है, जो उपलब्धियां हासिल की हैं, यह एक गुरु और एक विधान का ही चमत्कार है। मर्यादा और अनुशासन का ही परिणाम है। संघ के साधु-साध्वियां स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं कि उनको संघ से सब कुछ मिला है और मिल रहा है। मर्यादा और अनुशासन उनकी गति प्रगति के अवरोधक नहीं अपितु दुर्घटनाओं से बचाने वाले हैं, सुरक्षा प्रदान करने वाले हैं और गति को संतुलित करने वाले हैं। अनुशासन में रहने वाला ही एक दिन अपनी स्वतंत्र चेतना को जगा सकता है। इसके विपरीत अनुशासनहीन व्यक्ति अपने चारों और बंधनों ओर दुःखों का ही सृजन करते हैं। आचार्यश्री भिक्षु से पूछा गया- आपका संघ कब तक बलेगा? भिक्षु का उत्तर था- ''जब तक इसके अनुयायी श्रद्धा व आधार में सुदृढ़ रहेंगे, वस्त्र-पात्र आदि की मर्यादा का लोप नहीं करेंगे, अपने लिये स्थान बनवाने के प्रपंच में नहीं पड़ेंगे, तब तक यह मार्ग अच्छी तरह से चलता रहेगा।'' इस परिप्रेक्ष्य में वर्तमान पीढ़ी की सजगता बहुत मूल्यवान सिद्ध हो सकती है। हम अपनी आध्यात्मिक, शैक्षिक क्षमताओं को जगाएं। अपनी योग्यता और उपयोगिता को सिद्ध करें और संघ का भविष्य निर्धारित करें। 'आज', समग्र प्रगति की दिशा में उठाया गया एक विशाल कदम, 'कल' संघीय प्रतिष्ठा की दिशा में एक सुनहरी छलांग साबित होगा।