
तेरापंथ और मर्यादा
तेरापंथ के प्रणेता आचार्य श्री भिक्षु ने कहा था कि जब तक संघ के सदस्यों में आचार निष्ठा रहेगी तब तक धर्मसंघ चलता रहेगा। उन्होंने पहला स्थान आचार को तथा दूसरा स्थान सिद्वान्त को दिया। आचार और सिद्धान्त की निष्ठा पैदा करने के लिये उन्होंने मर्यादाओं का निर्माण किया। प्रखर साहित्यकार श्रीमद् जयाचार्य ने मर्यादाओं को महोत्सव का रूप दिया। तेरापंथ एकमात्र धर्मसंघ है जहाँ प्रतिवर्ष मर्यादाओं का महोत्सव मनाया जाता है तथा मानव समाज को मर्यादा के पथ पर चलने के लिये अभिप्रेरित किया जाता है।
वर्तमान युग में यह एक आश्चर्य है कि इतना बड़ा धर्मसंघ एक आचार्य की आज्ञा में चलता है। यह अहंकार और ममकार के विसर्जन का निदर्शन है। यह संघ त्याग और बलिदान की भावना से अनुप्राणित है। आचार्यश्री भिक्षु ने अनुभव किया था कि अनुशासन के बिना कोई भी संघ पवित्र नहीं रहा सकता। अनुशासन के आधार पर ही संघ विकास करता है और शक्तिशाली बनता है। अध्यात्म को पल्लवित करने के लिये मर्यादा और व्यवस्था बहुत जरूरी है। तेरापंथ इसका जीवन्त उदाहरण है।
प्रज्ञाप्ररूष आचार्य श्री महाप्रज्ञ कहते थे कि जब तक इसके सदस्यों के मन में अहंकार और ममकार का भाव नहीं होगा तब तक यह संघ निर्बाध चलता रहेगा। मर्यादा महोत्सव इस संघ का मेरुदंड है जो मर्यादाओं का सम्मान करना और जीवन-व्यवहार में लाना सिखलाता है। महाप्रज्ञ के शब्दों में मर्यादा महोत्सव मनाने का अधिकार भी उसे ही है जिसका मर्यादा में विश्वास है तथा अहं विलय, समर्पण एवं स्वार्थ विसर्जन में आस्था है। विश्वास और आस्था उत्तरोत्तर बढती रहे, यही मर्यादा महोत्सव मनाने का प्रयोजन है।
मर्यादा महोत्सव तेरापंथ धर्मसंघ का अनुशासन और मर्यादाओं से जुड़ा एक अनूठा आयोजन है जो न सिर्फ धर्मसंघ को जीवंतता एवं स्फूर्ति देता है बल्कि समूचे समाज को अनुशासन की प्रेरणा प्रदान करता है। संविधान निर्माता आचार्य श्री भिक्षु ने पांच मौलिक मर्यादाएं तेरापंथ धर्मसंघ को प्रदान की, जो धर्मसंघ की मूलाधार बनी हुई हैं और जिनके आधार पर यह धर्मसंघ चल रहा है। वे पांच मौलिक मर्यादाएं अक्षुण्ण बनी हुई हैं -
1. सर्व साधु-साध्वियां एक आचार्य की आज्ञा में रहें।
2. विहार-चतुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें।
3. अपना-अपना शिष्य-शिष्या न बनायें।
4. आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें। दीक्षित करने
पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें।
5. आचार्य अपने गुरूभाई या शिष्य को अपना
उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष
स्वीकार करें।
आचार्य श्री भिक्षु क्रान्तद्रष्टा महापुरूष थे। शुद्ध आचार और शुद्ध विचार के लिये समर्पित उनके व्यक्तित्व ने आध्यात्मिक क्षेत्र में नयी क्रांति का सूत्रपात किया। उनका बीज मंत्र था अनुशासन। उनका अभिमत था कि जहां अनुशासन का अतिक्रमण होगा वहां मौलिकता गौण हो जायेगी एवं संघर्ष और आपाधापी को अवसर मिल जायेंगे।
भगवान महावीर ने धर्मसंघ की सफलता के लिये संविभाग व्यवस्था पर बल दिया और उसे मोक्ष प्राप्ति का आधार बताया। आचार्य श्री भिक्षु ने इसी व्यवस्था को धर्मसंघ का आधार बनाया। भिक्षा में जो भोजन मिले उसे बांटकर खाए, जो वस्त्र मिले उसे बांटकर उपयोग करे तथा ठहरने के लिये जो स्थान मिले उसे भी विभागपूर्वक ग्रहण करे। इस तरह संविभाग-व्यवस्था से धर्मसंघ समें सुव्यवस्था रहेगी और उसमें सत्य, शिव एवं सौन्दर्य के दर्शन होंगे। तेरापंथ धर्मसंघ में यह व्यवस्था आदि काल से सुचारू रूप से चल रही है। वर्तमान में लगभग 725 साधु-साध्वियां इस धर्मसंघ में साधनारत हैं तथा एक ही आचार्य के निर्देश पर चलते हैं, यह एक अद्भुत बात है।
मर्यादा महोत्सव का त्रिदिवसीय कार्यक्रम अत्यन्त प्रभावशाली होता है और संघीय परंपरा को सुदृढ़ करता है। जहां एक ओर बसन्त पंचमी को सेवा केन्द्रों की नियुक्ति की जाती है जिससे रूग्ण और वृद्ध साधु-साध्वियां निश्चिंतता का अनुभव करते हैं वहां दूसरी ओर माघ शुक्ला सप्तमी को साधु-साध्वियों के चतुर्मासों की घोषणा की जाती है। जिसे हजारों श्रद्धालु लोग उत्कर्ण होकर सुनते हैं तथा सन्तोष का अनुभव करते हैं। कुल मिलाकर मर्यादा महोत्सव सारे समाज को नव ऊर्जा, उन्मेष एवं जीवन्तता प्रदान करता है तथा अनुशासन ओर मर्यादा की प्रेरणा से सिक्त करता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ के शब्दों में तेरापंथ के आचार्य समूचे धर्मसंघ को अनुशासन और व्यवस्था देते हैं और संपूर्ण धर्मसंघ उसका पालन करता है। उसके मध्य में श्रद्धा के अतिरिक्त दूसरी कोई शक्ति नहीं है। तेरापंथ के विनम्र व हृदय प्रेरित अनुशासन और आचार्य केंद्रित व्यवस्था सचमुच आश्चंर्य की वस्तु है। मर्यादा महोत्सव उसका प्रतीक है। इस दिन आचार्य भिक्षु द्वारा प्रदत्त संविधान का वाचन, श्रद्धा समर्पण का भव्य आयोजन तथा भावी कार्यक्रम का उद्घोष किया जाता है।
तेरापंथ वीतराग-पंथ है। उसकी नींव परमपूज्य आचार्य श्री भिक्षु ने डाली। वे मर्यादा-पुरूष और मर्यादा प्रणेता बने। तेरापंथ के चुतुथ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य मर्यादा महोतसव के प्रतिष्ठापक बने। महामना आचार्य श्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने मर्यादा महोत्सव को नूतन एवं अभिराम स्वरूप् प्रदान किया। परमपूज्य आचार्य श्री महाश्रमणजी उनके पदचिह्नों पर चलकर तेरापंथ के कुशल - संचालक बन रहे हैं। वर्तमान के इस स्वच्छंदतापूर्ण युग में मर्यादा का मूल्य बढ़ता जा रहा है। जहां मर्यादा और अनुशासन है, वहीं साधना है। आचार और विचार की शुद्धि के लिए धर्मसंघ का मर्यादित होना आवश्यक है। मर्यादा से ही शुद्ध आचार-विचार की परंपरा को स्थायित्व और सौष्ठव प्रदान किया जा सकता है।
ज्ञान का सार आचार है और आचार से ज्ञान सुशोभित होता है। तेरापंथ के आचार्य सर्वाधिक मर्यादित पुरूष होते हैं। वे धर्मसंघ में अनुशासन और मर्यादा के नियंता हैं। परमपूज्य आचार्यश्री तुलसी ने कहा था - 'तेरापंथ की शिष्य-संपदा भाग्यशाली है, जिन्हें गुरू की शक्ति मिलती है। संघ नाव है। संघ शरण है। संघ आधार है।' संघ की शक्ति को देखने का अपूर्व अवसर है- मर्यादा महोत्सव। महाव्रत मूल गुण हैं और मर्यादाएं उत्तरगुण हैं। ये महाव्रतों की सुरक्षा के लिये हैं। तेरापंथ की महिमा यही है कि वह एक आचार्य केन्द्रित धर्म संघ है। शताब्दी मर्यादा महोत्सव, बालोतरा में आचार्य श्री तुलसी ने संगान किया था-
सूरज चांद सितारों ने कब निज मर्यादा छोड़ी।
और समंदर धरती अम्बर ने कब सीमा तोड़ी।
मर्यादा से अन्वित ज्ञान तपस्या और विनय हो।।
गण मर्यादामय हो।।