मर्यादा पत्र है धर्मसंघ की छत्र छाया रखने वाला : युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मर्यादा पत्र है धर्मसंघ की छत्र छाया रखने वाला : युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण

नंदनवन भैक्षव शासन के 161वें मर्यादा महोत्सव के त्रि-दिवसीय समारोह के तृतीय एवं मुख्य दिवस कार्यक्रम का शुभारम्भ युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी द्वारा मंगल मंत्रोच्चार से हुआ। मुनि दिनेशकुमारजी ने मर्यादा घोष का उच्चारण और ‘मर्यादा गीत’ का संगान कराया। मर्यादाओं के प्रति सजग करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपनी ओजस्वी वाणी में फ़रमाया - हम धर्म से जुड़े हुए हैं और आज हम एक धर्म संघ के मर्यादा महोत्सव समारोह से भी जुड़े हुए हैं। भगवान महावीर के इस शासन में अनेक आम्नाय हैं। श्वेतांबर परंपरा में भी अनेक संप्रदाय हैं, जिनमें से एक है - 'तेरापंथ धर्म संघ'।
हमारे इस तेरापंथ धर्म संघ की स्थापना विक्रम संवत 1817 में हुई थी। वर्तमान में इस धर्म संघ को 264 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और 265वाँ वर्ष चल रहा है। इस धर्म संघ के संस्थापक एवं प्रथम आचार्य श्रीमद् भिक्षु स्वामी थे। वे हमारे धर्म संघ के जनक हैं और हम मानों उनकी संतानें हैं।
मर्यादा पत्र है गण छत्र
आचार्य भिक्षु ने धर्म संघ के लिए कई मर्यादाएँ लिखीं। उनका एक महत्वपूर्ण 'लिखत' विक्रम संवत 1859, माघ शुक्ल सप्तमी के दिन लिखा गया था, जो आज भी हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। लगभग 222 वर्ष पूर्व लिखित यह पत्र मानो गण छत्र है, हमारे धर्मसंघ की छत्र छाया रखने वाला है। इस मर्यादा पत्र की भावनाओं को मूल मानते हुए यह मर्यादा महोत्सव आयोजित किया जाता है। मर्यादा महोत्सव की परंपरा हमारे चतुर्थ आचार्य श्रीमद जयाचार्य द्वारा विक्रम संवत 1921 में राजस्थान के बालोतरा से प्रारंभ की गई थी।
तेरापंथ धर्म संघ की आचार्य परंपरा
हमारे धर्म संघ में आचार्य परंपरा का एक सुव्यवस्थित क्रम है। हमारा धर्म संघ 10 आचार्यों के शासन काल को देख चुका है। भारत में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता है, चूँकि यह संविधान से जुड़ा हुआ है इसलिए यह भी एक दृष्टि से भारत का मर्यादा महोत्सव है। मर्यादा महोत्सव के निमित्त से बहिर्विहार में विचरण करने वाले अनेक साधु-साध्वियों को आचार्यों की उपासना का अवसर मिल जाता है। यह अवसर प्रशिक्षण के रूप में भी सार्थक हो सकता है।
आचार्य का निर्णय कौन करे?
तेरापंथ धर्म संघ में भावी आचार्य का चयन केवल वर्तमान आचार्य द्वारा किया जाता है। इस कार्य के लिए समाज के लोगों, ट्रस्टियों या साधु-साध्वियों की कोई समिति नहीं बैठती। वर्तमान आचार्य जब उपयुक्त समझते हैं, तब भावी आचार्य की घोषणा कर सकते हैं। यह एकमात्र वर्तमान आचार्य का ही अधिकार है।
हमारे धर्मसंघ में एक आचार्य के नेतृत्व की व्यवस्था है। आचार्य की आज्ञा से ही साधु-साध्वियां विहार-चतुर्मास करते हैं। इस नियम में 265 वर्षों में आज तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। हमारे यहां साधु-साध्वियां भी हैं और समणश्रेणी भी हैं। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी के समय इस श्रेणी का प्रारम्भ हुआ है। ये साध्वियां तो नहीं हैं, किन्तु अनेक अंशों में साध्वियों के समान ही हैं। आचार्यों की दृष्टि के बिना आज तक कोई चतुर्मास नहीं हुए हैं। जहां आचार्य विहार के लिए कह दें, वहां विहार करने की मर्यादा है। कोई भी साधु-साध्वी अपना-अपना शिष्य-शिष्याएं न बनाएं। कभी-कभी साधु-साध्वी आचार्य की दृष्टि से दीक्षा तो सकते हैं, किन्तु वह शिष्य तो आचार्य का ही होता है। आचार्यश्री भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करते हैं और कोई दीक्षा के बाद भी अयोग्य निकले तो उसे गण से बाहर कर सकते हैं। योग्यता देखकर ही दीक्षा देनी चाहिए। आचार्य अपने गुरुभाई या शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने तो उसे सभी साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करते हैं। पूरे धर्मसंघ में इन पांच मर्यादाओं का सम्यक् और दृढ़ता के साथ पालन हो रहा है।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि मैं साधु-साध्वियों रूपी गण को प्रणाम करता हूं। तेरापंथ धर्म संघ का इतिहास 265 वर्षों का है, लेकिन आज तक इसमें दो या अधिक आचार्यों की व्यवस्था नहीं रही। यह इसकी विशिष्टता और एकता को दर्शाता है। हमारा यह धर्म संघ संगठित और अनुशासित संघ है, जहाँ परंपराएँ और मर्यादाएँ अक्षुण्ण बनी हुई हैं। हमारे धर्म संघ में समय-समय पर आवश्यक परिवर्तनों को अपनाते हुए मौलिकता को सुरक्षित रखा गया है। तेरापंथ प्रभु का पंथ है, जो धर्म और साधना का मार्ग प्रशस्त करता है। परम पूजनीय आचार्यों ने समाज को अनुशासन, साधना और आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश प्रदान किए हैं। साधु-साध्वियों के लिए अनुशासन संहिता और मर्यादावली है। श्रावक-श्राविका समाज के लिए ‘श्रावक संदेशिका’ है, जो उनके लिए अत्यंत उपयोगी है।
शनिवार की सामायिक
श्रावक समाज में शनिवार की परंपरा भी वर्षों से चली आ रही है। समाज में इसका प्रचार-प्रसार हो रहा है और इसे विभिन्न स्थानों—घर, कार्यालय, यात्रा में भी अपनाया जा सकता है।
सुमंगल साधना
श्रावक-श्राविकाओं के लिए 'सुमंगल साधना' का विशेष महत्व है, जो कठोर व्रत और नियमों से युक्त होती है। इस साधना को अपनाने से आत्मिक शुद्धि प्राप्त होती है।
सन्यास का महत्व
सन्यास, जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। एक साधु की साधना और त्याग अनमोल होते हैं, जो सांसारिक संपत्तियों से अधिक मूल्यवान हैं। साधुपन अत्यंत सौभाग्यशाली व्यक्ति को प्राप्त होता है। हमारा साधुपन निर्मल रहना चाहिए और समणियों का संन्यास भी।
संस्थाएं समाज का सौभाग्य
हमारे धर्मसंघ में अनेक केन्द्रीय, आंचलिक व स्थानीय संस्थाएँ हैं, जो जागरूक होकर कार्य कर रही हैं। ये संस्थाएं समाज के सौभाग्य की बात है। कल्याण परिषद एक ऐसा मंच है, जहां योजनाओं पर निर्णय होता है और उसका पालन भी होता है। विकास परिषद भी है, वह भी कल्याण परिषद के अंतर्गत ही है।
हमारे धर्मसंघ में ज्ञानशाला जैसी अनेक गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं, जो अत्यंत उपयोगी हैं। 
उपासकश्रेणी भी महासभा के तत्त्वावधान में चल रही है। पर्युषण में उनका अच्छा उपयोग हो और कभी संथारे की बात हो, जहां साधु-साध्वियां न हों, समणियां न हों तो उपासक-उपासिकाएं संथारा करा सकते हैं। प्रेक्षा-ध्यान, जीवन विज्ञान व अणुव्रत जैसी लोक कल्याणकारी गतिविधियाँ भी निरंतर चल रही हैं। इस वर्ष प्रेक्षा-कल्याण वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। पूज्यवर ने प्रेक्षा-ध्यान का संक्षिप्त प्रयोग भी करवाया।
संघ को नवीन दिशा-निर्देश
900 मीटर तक No पदत्राण
lसाधु-साध्वियों को जहाँ तक संभव हो, पदत्राण का न्यूनतम उपयोग करना चाहिए। प्रवास स्थल से 900 मीटर की दूरी तक सामान्यतया पदत्राण का उपयोग ना हो, विशेष आवश्यकता हो तो यह अलग बात है।
l75 वर्ष से कम आयु के साधु-साध्वियों को नए रूप से इनर का उपयोग नहीं करना चाहिए।
भगवान ऋषभदेव दीक्षा कल्याणक - चैत्र कृष्ण नवमी
lभगवान ऋषभदेव का दीक्षा कल्याणक दिवस चैत्र
कृष्ण नवमी को मनाया जाना चाहिए — यह हम व्यवहार में स्थापित कर रहे हैं। वर्षीतप का प्रारंभ चैत्र कृष्ण अष्टमी से ही किया जाए।
lआचार्य भिक्षु का जन्म त्रि-शताब्दी वर्ष प्रारंभ आगामी आषाढ़ शुक्ला 13 से होने जा रहा है, जिसे ‘भिक्षु चेतना वर्ष’ की संज्ञा दी गई है।
नया चिंतन - ‘सुप्रणिधान साधना’
lहमने एक नया चिंतन किया है— साधु-संस्था के लिए एक विशेष साधना, जिसे ‘सुप्रणिधान साधना’ का नाम दिया गया है। यह एक विशिष्ट साधना है, जिसे 75 वर्ष की आयु पार कर चुके साधु-साध्वियाँ अपनी इच्छानुसार स्वीकार कर सकते हैं।
दीक्षा के लिए उम्र सीमा पर नहीं, कसौटियों पर उतरना होगा खरा
l161वें मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने धर्मसंघ को संबोधित करते हुए कहा कि पहले पुरुषों की दीक्षा में 50 वर्ष की सीमा लगी हुई थी। आचार्यश्री ने उसे खोलते हुए कहा कि जिस अवस्था के व्यक्ति की दीक्षा की इच्छा होगी, यदि वह हमारी कसौटियों पर खरा उतरेगा, उसे दीक्षा प्रदान की जा सकती है। परंतु संथारे में दीक्षा की बात अभी तक स्वीकार नहीं की गयी है।
अहमदाबाद चातुर्मास में दीक्षा समारोह
lपूज्यवर ने 8 मुमुक्षु भाई-बहनों को भाद्रपद शुक्ल एकादशी को अहमदाबाद में दीक्षा की अनुमति प्रदान की। चार मुमुक्षु बहनों को समणी दीक्षा देने की भी घोषणा की।
lमुमुक्षु मनोज संकलेचा को साधु प्रतिक्रमण सीखने की स्वीकृति प्रदान की गई।
मर्यादा पत्र का वाचन
पूज्यवर ने मर्यादा महोत्सव के अवसर पर रचित नूतन गीत— 'करें हम आध्यात्मिक उत्थान रे, शुभ ध्यान रे, जैनागम वांग्मय ज्ञान' का सुमधुर संगान करवाया। आचार्यश्री ने आचार्य भिक्षु द्वारा राजस्थानी भाषा में लिखित अंतिम मर्यादा पत्र का वाचन करते हुए चारित्रात्माओं को त्याग भी कराया। तदुपरान्त विशाल प्रवचन पण्डाल में एक ओर संतवृंद, दूसरी ओर साध्वीवृंद और मध्य में समणीवृंद ने पंक्तिबद्ध होकर लेखपत्र का
उच्चारण किया। इस अवसर पर 43 साधु और 53 साध्वियां
और 43 समणियों की उपस्थिति रही। तदुपरांत पूज्य प्रवर ने श्रावक समाज को श्रावक निष्ठा पत्र का उच्चारण करवाया।
विहार, चातुर्मास एवं प्रेरणा
आचार्यश्री ने देश के विभिन्न हिस्सों में साधु-साध्वियों के विहार एवं चतुर्मासों की घोषणा की। साथ ही आचार्यश्री ने विदेशों और देश के अन्य हिस्सों में स्थित श्रावक समाज को लाभान्वित करने के लिए समणी केंद्र व उपकेन्द्र की घोषणा की। आचार्यश्री ने आगे प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि तेरापंथ समाज के सदस्य कहीं भी रहे, कहीं भी जाए, मांसाहार व शराब आदि के सेवन से बचने का प्रयास करना चाहिए।
अपनी निंदा का जवाब अपने अच्छे कार्यों से देने का प्रयास करना चाहिए। संयम के साथ अपना अच्छा कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। समाज की संस्थाओं में नैतिकता रखने का प्रयास करना चाहिए। दूसरों का कल्याण हो, इसके लिए दूसरों की सेवा का भी प्रयास करना चाहिए।
साध्वीप्रमुखाजी, साध्वीवर्याजी व मुख्यमुनिजी धर्मसंघ को अपनी सेवाएं दे रहे हैं और भी साधु-साध्वियां चाहे गुरुकुलवास में हों या न्यारा में, वे अपने ढंग से कार्यों में ध्यान देते हैं। कई संत कई संस्थाओं के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक के रूप में अपनी सेवा दे रहे हैं। कई साध्वियां आगम के कार्य और अन्य सेवा के कार्य से जुड़ी हुई हैं। समण श्रेणी के सदस्य भी कोई देश में, कोई विदेश में, कोई जैन विश्व भारती में, कोई धर्म प्रचार में अपनी सेवा देते हैं। मुमुक्षु बाइयाँ तो अभी पालने में झूल रही हैं। ये भी पर्युषण की यात्रा में जाती हैं। कभी अपेक्षा पड़ गयी तो साध्वियों को रास्ते की सेवा में इनका सहयोग मिलता है। सभी अपने कार्य में जुटे रहें।
अपना फर्ज निभाओ, संघ कहे - हम इसकी शान हैं
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि वे ही संगठन चिरजीवी होते हैं जिनके पीछे सिद्धांत और सच्चाई का बल होता है। तेरापंथ धर्मसंघ 264 वर्षों के बाद भी चिरजीवी बना हुआ है, और इसका प्रमुख कारण इसकी मर्यादा और अनुशासन है। मर्यादा प्रत्येक क्षेत्र में उपयोगी होती है, चाहे वह समाज हो, परिवार हो, राजनीति हो या शिक्षा का क्षेत्र। जहाँ मर्यादा होती है, वहाँ निश्चित रूप से विकास भी होता है। विकास के लिए मर्यादाओं का होना आवश्यक है। आचार्य भिक्षु ने अपने अनुभव के आधार पर मर्यादाएँ निर्धारित कीं, और इन्हीं के आधार पर मर्यादा महोत्सव मनाया जाता है।
मर्यादा का निर्माण वही कर सकता है, जिसे अंतर्दृष्टि प्राप्त हो, जो भविष्य-दर्शन रखता हो और जो देश, काल एवं भाव का ज्ञाता हो। आचार्य भिक्षु कानून के अध्येता नहीं थे, उनके पास किसी विश्वविद्यालय की कोई डिग्री नहीं थी, किंतु वे अनुभव संपन्न थे। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर मर्यादाओं को निर्धारित किया। उनके द्वारा लिखित मर्यादाएँ आज भी तेरापंथ धर्मसंघ की आधारशिला बनी हुई हैं। आचार्य भिक्षु ने जब इन मर्यादाओं को लिखा, तब उन्होंने शायद यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भविष्य में इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर मर्यादा महोत्सव मनाया जाएगा। लेकिन परम पूज्य श्रीमद जयाचार्य ने अपनी दूरदर्शिता से इन मर्यादाओं को महोत्सव का रूप प्रदान किया।
साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने कहा - आचार्य भिक्षु ने मर्यादाओं के द्वारा तेरापंथ की बेंचमार्किंग की, श्रीमद् जयाचार्य ने इसकी ब्रांडिंग की, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने उन्हें विश्वव्यापी पहचान दिलाई। वर्तमान में परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण तेरापंथ धर्मसंघ की महिमा को सहस्र गुना बढ़ा रहे हैं।
साध्वीप्रमुखाश्री ने अपने वक्तव्य को पूर्ण करते हुए चतुर्विध धर्मसंघ को संघ के लिए कुछ करने की प्रेरणा देते हुए कहा - “इतना ही ना कहे कि संघ हमारा महान है। अपना फर्ज निभाओ, संघ कहे - हम इसकी शान हैं।”
कार्यक्रम की शुरुआत में क्रमशः समणीवृंद, साध्वीवृंद एवं मुनिवृंद ने पृथक-पृथक गीत के माध्यम से संघ, संघ पति एवं गण की मर्यादाओं के प्रति निष्ठा को व्यक्त करती प्रस्तुति दी। कार्यक्रम के अंतिम चरण में संघगान के साथ पूज्यवर ने त्रि-दिवसीय मर्यादा महोत्सव के समापन की घोषणा की।