कषायों की तीव्रता से मिलता है पुनर्जन्म को सिंचन : आचार्यश्री महाश्रमण
वर्धमान के प्रतिनिधि, वर्तमान के वर्धमान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ कच्छ - भुज की ओर अग्रसर होते हुए वर्धमाननगर में स्थित बी.एम.सी.बी. पब्लिक स्कूल में पधारे। पावन प्रेरणा प्रदान कराते हुए शांतिदूत ने फरमाया कि जैन दर्शन दुनिया और भारत के अनेक दर्शनों में एक दर्शन है।
जैन दर्शन में अनेक सिद्धान्त हैं। आत्मा, कर्म, लोक आदि के सिद्धान्त जैन दर्शन में प्राप्त हैं। जैन दर्शन में आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व माना गया है। आत्मा शाश्वत है, प्रत्येक आत्मा अनन्त काल पहले विद्यमान थी, वर्तमान में भी है और अनन्त काल बाद भी दुनिया में रहेगी। आत्मा का कभी नाश नहीं होता। आत्मा को कोई काट नहीं सकता, जला नहीं सकता, कोई गीला या सुखा नहीं सकता। आत्मा के सिद्धांत में यह भी बताया गया है कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है। जब तक आत्मा को मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता, आत्मा जन्म-मरण के चक्र में उलझी हुई रहती है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चार गतियों में अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मरण करती रहती है।
एक आत्मा के अनेक प्रदेश होते हैं। असंख्य प्रदेशों में से कभी भी एक प्रदेश कम नहीं होता और एक भी प्रदेश बढ़ नहीं सकता। सब आत्माओं के एक समान प्रदेश होते हैं। केवली समुद्घात के समय आत्मा के प्रदेश एक समय में पूरे लोकाकाश में फेल जाते हैं। जितना बड़ा लोकाकाश है उतनी बड़ी हमारी आत्मा है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव इन चारों के प्रदेश असंख्य और समान है।
आत्मा फैलती है तो पूरे लोकाकाश में फैल जाती है और सिकुड़ती है तो एक कुंथु जैसे छोटे से जीव में समाविष्ट हो जाती है। आत्मा पुनर्जन्म भी लेती है। जब तक मोक्ष न हो जाए चारों गति में जन्म-मरण करती रहती है। अव्यवहार राशि के जीव जो वनस्पतिकाय में है वे तो अनन्त काल तक उसी में रहते हैं। व्यवहार राशि में भी जितने जीव हैं, उतने ही रहते हैं।
पूर्वजन्म है तभी पुनर्जन्म की बात है। प्रश्न हो सकता है कि पुनर्जन्म क्यों होता है? शास्त्रों में बताया गया कि क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों के कारण पुनर्जन्म होता है। ये कषाय ही पुनर्जन्म के हेतु होते हैं। कषायों की तीव्रता से पुनर्जन्म को सिंचन मिलता है। जब तक कषाय रहेगा, मोक्ष नहीं होगा। जन्म-मरण से जीव को कितने दुःख भोगने पड़ते हैं। साधु बनने का मूल प्रयोजन होना चाहिए कि जन्म-मरण की परम्परा से छुटकारा पाना और मोक्ष को प्राप्त कर लेना।
हम जैन शासन में साधना कर रहे हैं। ज्ञान की कितनी बातें हमें 32 आगमों से प्राप्त होती है। भगवान महावीर जैन शासन के नायक और हम सब के धर्म पिता हैं, हम उनकी संतानें हैं। जैन शासन का अपना ज्ञान और आचार है। धर्म की साधना से जन्म-मरण की परम्परा से छुटकारा मिल सकता है। श्रावक बनने का भी वही प्रयोजन है।
साधु और श्रावक दोनों रत्नों की माला है। एक बड़ी है, एक छोटी है। साधु सर्वव्रती है। इसलिए वह बड़ी माला के समान है। हमें सिद्ध भगवान जैसा बनना है। सिद्ध बनने के लिए शुद्ध बनना पड़ता है। वेशभूषा कैसी भी हो, आत्मा शुद्ध होनी चाहिए। अहिंसा, संयम और तप हमारे जीवन में रहे। व्यक्ति जैन बने या न बने पर गुडमैन अवश्य बने। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने उपस्थित लोगों को कुछ क्षण प्रेक्षाध्यान का प्रयोग भी करवाया। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि सारे जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। मनुष्य जीवन हमें उपलब्ध हुआ है, हम सफल और सार्थक जीवन जीयें ताकि हम सब दुःखों से छुटकारा पाकर मोक्ष को प्राप्त कर सकें। यदि जीवन को अच्छा नहीं बनाया तो जीवन बर्बाद हो जाएगा। जीवन को अच्छा बनाने के साधु के लिए पांच महाव्रत और गृहस्थ के लिए 12 अणुव्रत हैं, उन्हें जीवन में अपनाएं और आत्मा का कल्याण करें। पूज्यवर के स्वागत में वर्धमान नगर की ओर से कांतिलाल भाई शाह, स्थानीय आठ कोटी सम्प्रदाय से मंत्री हंसमुख भाई वोरा, छः कोटी समाज के अध्यक्ष अशोक भाई शाह, स्कूल की प्रिंसिपल गीता बेन सोनी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।