संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

भगवान् प्राह
जीवपुद्गलयोगेन, दृश्यं जगदिदं भवेत् ॥
भगवान् ने कहा-वत्स ! यह जगत् जीव और पुद्गल के संयोग से दृश्य बनता है।
३६. आत्मा न दृश्यतामेति, दृश्यो देहस्य चेष्टया।
देहेऽस्मिन् विनिवृत्ते तु, सद्योऽदृश्यत्वमृच्छति॥
आत्मा स्वयं दृश्य नहीं है, वह शरीर की चेष्टा से दृश्य बनता है। शरीर की निवृत्ति होने पर वह तत्काल अदृश्य बन जाता है।
विज्ञान और धर्म में कोई दूरी है तो यह है कि विज्ञान जितना दृश्य को स्वीकार करता है, उतना अदृश्य को नहीं। विज्ञान की दृष्टि है कि जिसका माप हो वही तत्त्व है। धर्म कहता हैं-अमाप्य भी तत्त्व है। आप सब कुछ माप सकते है। किन्तु आत्मा या अमूर्त को नहीं। दृश्य ही सब कुछ नहीं है। यह स्वयं निष्चेष्ट निष्क्रिय है, यदि उसके पीछे अदृश्य का हाथ न हो तो। दृश्य महान् नहीं है। महान् है-अदृश्य, जिसकी सत्ता सर्वत्र काम कर रही है। पांच फुट के इस छोटे शरीर में जो स्वचालित प्रक्रिया हो रही है, यह क्या उस अदृश्य की सूचना नहीं दे रही है? वैज्ञानिक कहते हैं- 'यदि इस शरीर का निर्माण हमें करना पड़े तो कम से कम दस वर्गमील में एक कारखाना बनाना पड़े।' दृश्य शरीर की चेष्टा से अदृश्य का बोध होता है। उसे नकारा नहीं जाता। आज वैज्ञानिक भी उसके निकट पहुंच रहे हैं और उसकी सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं। बहुतों ने अपनी खोज के संबंध में कहा है-इस तथ्य का पता हमें किसी अज्ञात जगत् से मिला है। शरीर के सो जाने पर भी चेतना नहीं सोती।
३७. स्पर्शाः रूपाणि गन्धाश्च, रसा येन जिल्हासिताः।
आत्मा तेनैव लब्धोऽस्ति, स भवेदात्मविद् पुमान्॥
जिसने स्पर्श, रूप, गंध और रसों की आसक्ति को छोड़ना चाहा, आत्मा उसी को प्राप्त हुआ है और वही आत्मवित् है।
आत्मा का अनुभव इन्द्रिय विषयों से परे हटने पर होता है। जब तक इन्द्रिय और मन की हलचल होती रहती है तब तक आत्मा सुप्त रहती है। जब आत्मा जागती है तब वे सो जाते हैं। गीता में लिखा है- 'इन्द्रियों के विषय उस शरीर-धारिणी आत्मा से विमुख हो जाते हैं, जो उसका आनंद लेने से दूर रहती है। परंतु उनके प्रति रस (लालसा) फिर भी बना रहता है। जब भगवान् (आत्मा) के दर्शन हो जाते हैं तब वह रस भी जाता रहता है।'