
उग्र स्वभाव है मोक्ष प्राप्ति में बाधक : आचार्यश्री महाश्रमण
जन-जन के उद्धारक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन धर्म में मोक्ष को सर्वोच्च स्थिति मानी जाती है। नौ तत्वों में अंतिम तत्व मोक्ष है। वहाँ न पुण्य-पाप होता है, न आश्रव-संवर और न ही निर्जरा व बंधन। मोक्ष प्राप्त आत्मा सभी कर्मों से मुक्त होती है। अध्यात्म साधना का अंतिम लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए। साधुपन धारण करना, श्रावक व्रतों को स्वीकार करना और अन्य धार्मिक साधनाएँ— सबका मूल उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है।
मार्ग एक दिशा देता है और मंज़िल ही उसका अंतिम लक्ष्य होती है। ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ होती हैं, लेकिन सीढ़ियाँ लक्ष्य नहीं होतीं—लक्ष्य तो मंज़िल होती है। मोक्ष-मार्ग में भी ऐसे ही सोपान होते हैं। चौदह गुणस्थान आत्मोन्नति के सोपान हैं, जिनकी अंतिम सीढ़ी पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। बारहवें गुणस्थान के बाद जीव और ऊँचा ही उठता है, नीचे नहीं आता। ग्यारहवाँ गुणस्थान एक बंद गली के समान होता है, जहाँ से जीव को वापस नीचे लौटना पड़ता है। पहले गुणस्थान में रहने वाले जीव अनंत काल तक उसी स्थिति में रहते हैं। अभव्य जीवों के लिए पहला गुणस्थान ही उनका शाश्वत स्थान होता है—यह उनकी नियति होती है। यह एक विचित्र स्थिति होती है, जो पारिणामिक भाव कहलाती है। अभव्य जीव कभी भव्य नहीं बन सकता। उसे कोई भी सम्यक्त्व नहीं दिला सकता। वह साधु या आचार्य तो बन सकता है, लेकिन मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। कुछ जीव ऐसे होते हैं जो तीसरे, पाँचवें और ग्यारहवें गुणस्थान को स्पर्श ही नहीं करते। किंतु जो मोक्ष को प्राप्त करते हैं, वे निश्चित रूप से पहले, सातवें, आठवें, नौवें, दसवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान से गुजरते हैं—बीच के छह गुणस्थान वे छोड़ भी सकते हैं।
मोक्ष हमारा लक्ष्य होना चाहिए। जो व्यक्ति चंड-गुस्सैल और अहंकारी होता है, उसे मोक्ष नहीं मिलता। हमें अपने क्रोध को शांत रखना चाहिए। ज्ञान के क्षेत्र में भी मौन का महत्व है। शक्ति होने पर भी क्षमाभाव बनाए रखना चाहिए। त्याग करने के बाद भी नाम-ख्याति का लोभ नहीं होना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भी यदि स्वभाव उग्र रहेगा, तो वह किसी काम का नहीं होगा। निर्णय आवेश में नहीं, बल्कि विवेकपूर्वक लिया जाना चाहिए। सिर्फ कुर्सी पर बैठने से कोई बड़ा नहीं बनता; बल्कि चिंतनशीलता और महानता ही व्यक्ति को ऊँचाइयों तक ले जाती है और मोक्ष की दिशा में अग्रसर करती है। पूज्य प्रवर के प्रवचन के उपरांत मुनि अनंतकुमारजी ने अपनी भावना व्यक्त की। पूज्यवर ने जिगर मेहता को मुमुक्षु रूप में साधना करने की स्वीकृति प्रदान की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।