
श्रमण महावीर
इन्द्रभूति के पैर आगे बढ़ते-बढ़ते रुक गये। मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा महावीर कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। लोगों की बातों से लगता है। कि उनके पास साधना का बल है, तपस्या का तेज है। क्या मैं जाऊं? मन ही मन यह प्रश्न उभरने लगा। इसका उत्तर उनका अहं दे रहा था। अपने पांडित्य पर उन्हें गर्व था। वे शास्त्र-चर्चा के मल्लयुद्ध में अनेक पंडितों को परास्त कर चुके थे। वे अपने को अजेय मान रहे थे। इस सारी परिस्थिति से उत्पन्न अहं ने उन्हें फिर महावीर के पास जाने को प्रेरित किया। उनके पैर आगे बढ़े। उनके पीछे हजारों पैर और उठ रहे थे। शिष्यों द्वारा उच्चारित विरुदावलियों से आकाश गूंज उठा। पावा के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर केन्द्रित हो गया। राजपथ स्तब्ध हो गए।
इन्द्रभूति महासेन वन के बाहरी कक्ष में पहुंचे। समवसरण को देखा। उनकी आखों में अद्भुत रंग-रूप तैरने लगा। उनका मन अपनत्व की अनुभूति से उद्वेलित हो गया। उन्हें लगा जैसे उनका अहं विनम्रता की धारा में प्रवाहित हो रहा है। उनकी गति में कुछ शिथिलता आ गई। उत्साह कुछ मंद हो गया। पर परम्परा का मोह एक ही धक्के में कैसे टूट जाता? वे साहस बटोर महावीर के पास पहुंच गए।
भगवान् ने इन्द्रभूति को देखा। अपनी आखों में प्रवहमान मैत्री की सुधा को उनकी आखों में उड़ेलते हुए बोले, 'गौतम इन्द्रभूति! तुम आ गए?'
इन्द्रभूति का अहं चोट खाए सांप की भांति रह-रहकर फुफकार उठता था।
वह एक बार फिर बोल उठा, 'मुझे कौन नहीं जानता? मेरे नाम से मालव तक के लोग कांपते हैं। सौराष्ट्र में मेरी धाक है। काशी-कौशल के पंडितों का मैंने मान-मर्दन किया है। क्या सूर्य किसी से छिपा है? महावीर बड़े चतुर हैं। वे मेरा नाम-गोत्र और परिचय बताकर मुझे अपनी सर्वज्ञता के जाल में फंसाना चाहते हैं, पर मैं क्या भोली-भाली मछली हूं जो इनके जाल में फंस जाऊं? मैं इनके मायाजाल में कभी नहीं फंसूगा।'
इन्द्रभूति अपने ही द्वारा गूंथे हुए विकल्प के जाल में उलझ रहे थे। भगवान् महावीर ने सुलझाव की भाषा में कहा, 'इन्द्रभूति! तुम्हें जीव के अस्तित्व के बारे में सन्देह है। क्यों, ठीक है न?'
इन्द्रभूति के पैरों के नीचे से धरती खिसक गई। वे अवाक् रह गए। अपने गूढ़ संदेह का प्रकाशन उनके लिए पहेली बन गया। वे अपने आप से पूछने लगे क्या महावीर सचमुच सर्वज्ञ हैं? इन्होंने मेरे मन के अन्तस्तल में पले हुए संदेह को कैसे जाना? मैंने आज तक अपना संदेह किसी के सामने प्रकट नहीं किया। फिर इन्हें उसका पता कैसे लगा? उन्होंने अपने आपको संबोधित कर कहा, 'इन्द्रभूति ! आज तुम सचमुच किसी जाल में फंस रहे हो। इससे छुटकारा संभव नहीं। इसकी पकड़ मजबूत होती जा रही है।'
'भगवान् ने इन्द्रभूति को फिर संबोधित किया, 'इन्द्रभूति ! तुम्हें अपने अस्तित्व में सन्देह क्यों? जिसका पूर्व और पश्चिम नहीं है, उसका मध्य कैसे होगा? वर्तमान का अस्तित्व ही अतीत और भविष्य के अस्तित्व का साक्ष्य है। एक परमाणु भी अपने अस्तित्व से च्युत नहीं होता तब मनुष्य अपने अस्तित्व से च्युत कैसे होगा? यह अमिट लौ है, जलती रही है और जलती रहेगी। इसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता।'
'सूक्ष्म तत्त्व को अस्वीकार करें तो गति तत्त्व और आकाश को स्वीकार कैसे किया जाएगा? यह जीव इन्द्रियातीत सत्य है। इसे इन्द्रियों से अभिभूत मत करो, किन्तु अतीन्द्रियज्ञान से इसका साक्षात् करो।'
भगवान् की वाणी के पीछे सत्य बोल रहा था। इन्द्रभूति का ग्रन्थि-भेद हो गया। उन्हें अपने अस्तित्व की अनुभूति हुई। उनकी आखों में बिजली कौंध गई। वे अपने अस्तित्व का साक्षात् करने को तड़प उठे। वे भावावेश में बोले, 'भंते! मैं आत्मा का साक्षात् करना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन करें और मुझे अपनी शरण में ले लें।'