धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

१. जिनेन्द्रपूजा– वीतराग तीर्थंकरों के प्रति भक्ति ।
२. गुरु-उपासना– धर्मगुरुओं की उपासना-सेवा।
३. सत्त्वानुकम्पा– प्राणियों के प्रति दया-भाव।
४. शुभपात्रदान– सुपात्र दान।
५. गुणानुराग– गुणों के प्रति अनुराग, आकर्षण।
६. आगमश्रुति– आगमों, धर्मशास्त्रों का श्रवण ।
इन छः बातों का आचरण जीवन में होना चाहिए।
व्यक्ति सुखेच्छु होता है। सुख प्राप्ति के लिए वह कृतसमर्पित बना रहता है। वह सुख प्राप्ति के लिए संकल्प और प्रयास करता है और प्रत्युत् कई बार पुनः दुःख के आवर्त्त में फंस जाता है। स्थायी और निरपेक्ष सुख की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है अध्यात्म। उसकी आराधना सदैव की जानी चाहिए। परन्तु उसकी सघन साधना सबके लिए सदा सम्भव नहीं बनती। इसलिए कुछ दिनों को धर्माराधना के लिए विशेष रूप से निर्धारित किया गया है। जैसे अन्य परम्पराओं में रोजा व नवरात्र का समय विशेष आराधना का होता है। वैसे ही जैन श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण और दिगम्बर परम्परा में दशलक्षण पर्व विशेष धर्माराधना का समय है। प्रकृष्ट साधना सार्वजनिक रूपेण हो, इस दृष्टि से कुछ समय निर्धारित किए गए हैं, उन समयों का अपना वैशिष्ट्य और महत्त्व भी हो सकता है। श्रावण, भाद्रव महीनों में तपः आराधना अधिक की जाती है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि तिथियों में भी विशेष आराधना का निर्देश आगमों में उपलब्ध है। श्वेताम्बर जैन परम्परा में पर्युषण को पूरे वर्ष में विशेष धर्माराधना के अवसर के रूप में गौरव प्राप्त है। उसमें भी सर्वाधिक महत्त्व और मूर्धन्य स्थान संवत्सरी महापर्व के दिन को प्राप्त है। इस दिन साधु-साध्वियां अनिवार्यतया पूर्ण उपवास करते हैं। श्रावक-श्राविकाएं भी उपवास और यथासम्भव पौषध की आराधना करते हैं। बच्चों को भी यथासम्भव उपवास, सामायिक व प्रवचन-श्रवण के लिए प्रेरित किया जाता है। संवत्सरी के दिन तो प्रलम्ब प्रवचन का कार्यक्रम चलता ही है। संवत्सरी की तैयारी स्वरूप पूर्ववर्ती सात दिनों में भी विशेष रूप से प्रवचन व धर्माराधना का कार्यक्रम चलता है। जहां आचार्यों, साधु-साध्वियों की उपस्थिति होती है, वहां तो उन पूज्यवरों से पर्युषण पर्व को आराधना में श्रावक-समाज को सहयोग मिलता ही है, उनको अनुपस्थिति में भी स्वाध्यायियों, उपासकों आदि के माध्यम से उसकी यत्किंचित् पूर्ति करने का प्रयास किया जाता है।
संवत्सरी मैत्री पर्व के रूप में प्रख्यात है। इस दिन वैमनस्य को सौमनस्य में
हृदय से रूपांतरित किया जाए तो इस पर्व को मनाने की अधिक सार्थकता होती है। यदि वैर-वैमनस्य हो ही नहीं तो बहुत अच्छी स्थिति है, भविष्य में सदा सौमनस्य को पुष्ट बनाए रखने का संकल्प इस दिन किया जाए। पर्युषण-संवत्सरी की आराधना से उस आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त किया जाए जिसके आधार पर वर्ष भर की
सारी गतिविधियां अध्यात्म प्रभावित रह सकें, मन में क्षमाशीलता का भाव कुछ
विकसित रूप में रह सके।

आध्यात्मिक पोषण का अवसर पर्युषण
दशलक्षण एवं पर्युषण पर्व धर्म की प्रकृष्ट आराधना अथवा सघन आध्यात्मिक पोषण-प्राप्ति का महान् अवसर होता है। क्षमा आदि दस धर्मों को जानने और उन्हें आचीर्ण करने की प्रेरणा पाने का सुन्दर अवसर दशलक्षण पर्व को कहा जा सकता है। उसी का सहोदर भाई है पर्युषण पर्व, जिसमें विभिन्न तरीकों से धर्माराधना की जाती है। यह समय प्रमुख रूप से धर्माराधना के लिए ही निर्धारित रहना चाहिए।