संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

इसलिए आगम तथा ऋषि साहित्य में सत्संकल्पों की एक लंबी धारा प्रवाहित हो रही है, उन संकल्पों का चयन कर चित्त को भावित करते हुए नकारात्मक सोच से अपने को मुक्त कर जीवन को स्वर्णिम बनायें। 'दैवीसंप‌विमोक्षाय' मुक्ति के लिए दैवी गुणों का अवलंबन लेना। यह प्रशस्त भावना का ही रूप है। सद्गति का यह सीधा सरल पथ है। इससे उल्टे अप्रशस्तभाव आसुरी संपद् बंधन के लिए है, दुर्गति के लिए है।
४३. वाचः कायस्य कौकुच्यं, कन्दर्प विकथा तथा। 
      कृत्वा विस्मापयत्यन्यान्, कान्दर्पी तस्य भावना॥
वाणी और शरीर की चपलता, कामचेष्टा और विकथा के द्वारा
जो दूसरों को विस्मित करता है, उसकी भावना 'कान्दर्पी' भावना  
कहलाती है।
४४. मन्त्रयोगं भूतिकर्म, प्रयुक्ते सुखहेतवे। 
      अभियोगी भवेत्तस्य, भावना विषयैषिणः।।
विषय की गवेषणा करने वाला जो व्यक्ति सुख की प्राप्ति के लिए मंत्र और जादू-टोने का प्रयोग करता है, उसकी भावना 'अभियोगी' भावना कहलाती है।
४५.' ज्ञानस्य ज्ञानिनो नित्यं, संघस्य धर्मसेविनाम्। 
वदन्नऽवर्णानाप्नोति, किल्विषिकीञ्च भावनाम्।।
ज्ञान, ज्ञानवान्, संघ और धार्मिकों का जो अवर्णवाद बोलता है, उसकी भावना 'किल्विषिकी' भावना कहलाती है।
४६. अव्यवच्छिन्नरोषस्य, क्षमणान्त्र प्रसीदतः। 
      प्रमादे नानुतपतः, आसुरी भावना भवेत्॥
जिसके रोष निरंतर बना रहता है, जो क्षमायाचना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता और जो अपनी भूल पर अनुताप नहीं करता, उसकी भावना 'आसुरी' भावना कहलाती है।