
गुरुवाणी/ केन्द्र
समर्थ शरीर से हो सकती है उत्कृष्ट साधना : आचार्यश्री महाश्रमण
संयम के सुमेरू, आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 12 किलोमीटर का विहार कर सांतलपुर स्थित मॉडल स्कूल में पधारे। शांतिदूत ने अमृतमय देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे जीवन में आत्मा तो मूल तत्व है ही, परन्तु शरीर का भी उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान है। जब तक शरीर जीवित है, तभी तक जीवन है। इसी शरीर के माध्यम से हम श्रेष्ठ कार्य कर सकते हैं। धर्म और अध्यात्म की साधना भी इसी शरीर द्वारा संभव है। दूसरों की सेवा भी शरीर से की जा सकती है। शरीर और मन दोनों ही साधना के साधन हैं। यदि हम शरीर से उत्तम कार्य करना चाहते हैं, तो उसका सक्षम और स्वस्थ रहना आवश्यक है।
शास्त्रों में शरीर की समर्थता को बनाए रखने हेतु तीन प्रमुख बाधाओं से सावधान रहने की बात कही गई है—बुढ़ापा, बीमारी और इन्द्रियों की क्षीणता। जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, बीमारियाँ न घेरें और इन्द्रियाँ दुर्बल न हों, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। केवल आयु से बुढ़ापा नहीं आता, अनेक बीमारियाँ लाइलाज हो सकती हैं। दृष्टि कमजोर हो सकती है या श्रवण शक्ति क्षीण हो सकती है। विद्यार्थियों को लौकिक और व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी प्रदान किया जाना चाहिए। ध्यान के प्रयोग कराए जाने चाहिए। नैतिकता और नशा-मुक्त जीवन के मूल्य विद्यार्थियों में आत्मसात हों। सफलता का पौधा परिश्रम रूपी जल से सींचा जाता है। जो कुछ भी प्राप्त करना है, वह श्रम के द्वारा ही संभव है। विद्यार्थियों को मेहनत से अंक अर्जित करने चाहिए, न कि किसी अवैध या अनुचित तरीके से।
विद्यार्थियों का केवल ज्ञान ही नहीं, अपितु उनका चरित्र और आचरण भी उत्तम होना चाहिए। बिना आचरण के ज्ञान अधूरा है। जब दोनों हों, तभी ज्ञान पूर्ण होता है। ईमानदारी एक श्रेष्ठ नीति है। शिक्षक, गुरु स्वरूप होता है, जो अंधकार को दूर करता है। जैसे शिक्षक उत्तम हों, वैसे ही विद्यार्थियों का भी श्रेष्ठ होना आवश्यक है। प्रयासों द्वारा विद्यार्थियों में उत्तम ज्ञान और संस्कारों का विकास संभव है। साधुओं का आगमन और दर्शन स्वयं में एक विशेष अवसर होता है। सुत, दारा अरू लक्ष्मी, पापी के भी होय, संत समागम-हरिकथा, तुलसी दुर्लभ दोय।'
भारत में संत परम्परा एक अनमोल धरोहर है। यह भारत का सौभाग्य है कि यहाँ त्यागी संतों का जन्म होता है, जो समाज का कल्याण करते हैं। गृहस्थों में भी कई संततुल्य श्रेष्ठ पुरुष मिल सकते हैं, जो साधना में रत रहते हैं। हमें अपने जीवन में धर्म का आचरण अवश्य करना चाहिए—यही हमारी सच्ची कामना हो। पूज्यवर के स्वागत में मॉडल स्कूल, सांतलपुर के प्रिंसिपल नेहलभाई रावल ने अपनी भावनाएँ व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।