संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

५२. सपापं हृदयं यस्य, जिह्वा मधुरभाषिणी।
उच्यते विषकुम्भः स, नूनं मधुपिधानकः।।
जिस व्यक्ति का हृदय पाप-सहित है, किन्तु जिसकी जिह्वा मधुरभाषिणी है, वह विषकुंभ है और मधु के ढक्कन से ढंका हुआ है।
५३. सपापं हृदयं यस्य, जिक्ता कटुकभाषिणी।
उच्यते विषकुम्भः स, नूनं विषपिधानकः ॥
जिस व्यक्ति का हृदय पाप-सहित है और जिसकी जिह्वा कटुभाषिणी है, वह विषकुंभ है और विष के ढक्कन से ढंका हुआ है।
कुम्भ चार प्रकार के होते हैं:
१. मधुकुम्भ मधुढक्कन।
२. मधुकुम्भ विषढक्कन।
३. विषकुम्भ मधुढक्कन।
४. विषकुम्भ विषढक्कन।
इसी प्रकार मनुष्य चार प्रकार के होते हैं:
१. शुद्ध हृदय मधुरभाषी।
२. अशुद्ध हृदय कटुभाषी।
३. शुद्ध हृदय कटुभाषी।
४. अशुद्ध हृदय मधुरभाषी।
महावीर को 'संगम' देवता ने छह महीने तक यंत्रणाएं, ताड़णाएं और मारणांतिक कष्ट दिये। महावीर मौन-शांत सब सहते गये। अंत में देवता थक गया। जब जाने लगा तब अपने असद् व्यवहार की क्षमा मांगी। महावीर ने कहा- तुमने अपना काम किया और मैंने अपना काम किया। असाधु असाधु के सिवाय और क्या कर सकता है? तथा साधु साधुता से अन्यथा व्यवहार नहीं कर सकता। मुझे दुःख है कि मेरा जीवन विश्व कल्याण के लिए है और तुम मेरे ही कारण अपना पतन कर रहे हो।