
गुरुवाणी/ केन्द्र
आध्यात्मिक आभूषणों से सजाएं आत्मा को : आचार्यश्री महाश्रमण
महान यायावर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने माडका प्रवास के दूसरे दिन पावन आगम वाणी का रसास्वादन कराते हुए महातपस्वी ने फरमाया कि भगवान अथवा परमात्मा का स्मरण कितने लोग करते होंगे? जिनके मन में धर्म के प्रति रुचि, आस्था और आराध्य के प्रति भक्ति होती है, वे ही श्रद्धा से अपने आराध्य का स्मरण-जप करते हैं। यह मानव जीवन और इसमें हमारा मन एक मनमंदिर बन जाए—जिसमें हमारा आराध्य विराजमान हो। उपासना, जप, भक्ति—ये सभी आत्म-शुद्धि के उत्तम साधन हैं। इनसे भाव-शुद्धि बनी रह सकती है। प्रतिक्रमण भी शुद्धिकरण का एक उपाय है। ‘प्रभु मेरे अवगुण चित्त न धरो’ जैसे गीतों में भी शुद्धि की भावना अंतर्निहित होती है। उपासना स्वयं में धर्म है। दूसरा धर्म है—व्यक्ति का सदाचारी आचरण।
आभूषणों से शरीर की शोभा हो सकती है, किंतु संतों का जीवन तो बिना बाह्य आभूषणों के भी शोभायमान हो सकता है। यह विचारणीय है कि एक उम्र के बाद गृहस्थ को परिग्रह का अल्पीकरण करना चाहिए। अब आंतरिक आभूषणों को उजागर करना चाहिए—और उन्हें धारण करना चाहिए।
आध्यात्मिक आभूषणों में हाथ का आभूषण है—शुद्ध साधु को दान देना।
सिर का आभूषण है—गुरु के चरणों में वंदन करना।
मुख का आभूषण है—सत्यवाणी बोलना; झूठ न बोलना।
कान का आभूषण है—श्रुतज्ञान सुनना; दु:खी जन की बात सुनना और यथासंभव सहायता करना।
हृदय का आभूषण है—छल-कपट रहित स्वच्छता रखना।
भुजाओं का आभूषण है—धार्मिक और आध्यात्मिक सेवा में शक्ति का सदुपयोग करना।
संतों के चरणों से की गई लंबी यात्राएं भी आध्यात्मिक आभूषण हैं। उपासकजन भी धर्म-आध्यात्मिक सहयोग दे सकते हैं। शरीर के अंगों का उपयोग अधिक से अधिक लौकोत्तर दृष्टिकोण में करें। किसी को सम्यक दृष्टि प्रदान करें। मानव जीवन का उपयोग धार्मिक सेवा में करें। 'सुमंगल साधना' श्रावक के लिए उच्च कोटि की साधना है—उसे अपनाएं। व्यापार में भी अहिंसा और ईमानदारी रहे। किसी के साथ धोखाधड़ी न हो। प्रामाणिकता आत्मा को निर्मल बनाए रखती है। भगवान महावीर ने अत्यंत उत्कृष्ट साधना की थी। आचार्य भिक्षु में भी त्याग, संयम, सहिष्णुता, साधना और ज्ञान का अद्वितीय वैभव था। भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष समीप है—इस निमित्त उपासक आचार्य भिक्षु के जीवन को पढ़ने और समझने का प्रयास करें।
साध्वीवर्याश्री सम्बुद्धयशाजी ने कहा कि पारसमणि के संस्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है। गुरु भी पारसमणि के समान होते हैं। उनके सान्निध्य से शिष्य की आत्मा निर्मल बन जाती है। कर्मों से भारी आत्मा हल्की हो जाती है। लौकिक गुरु लौकिक ज्ञान देते हैं, जबकि लोकोत्तर गुरु आत्मा को जानने का दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं। हम अत्यंत सौभाग्यशाली हैं कि हमें ऐसे परम लोकोत्तर गुरु प्राप्त हुए हैं, जो हमें पाथेय प्रदान करते हैं।
पूज्यवर की अभिवंदना में अपनी जन्मभूमि की ओर से साध्वी सिद्धांतश्री जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यवर ने उन्हें स्वाध्याय, साधना, सेवा भावना व सिद्धांत के अध्ययन का मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। माडका तेरापंथ महिला मण्डल ने स्वागत गीत का संगान किया। ‘संघ समर्पण गौरव गाथा’ परिख परिवार-माडका की ओर से रमिला बेन और अल्का बेन प्रस्तुति दी। चेतना परिख ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। स्थानीय ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुतियां दीं। किरिटभाई ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।