
गुरुवाणी/ केन्द्र
स्वाध्याय, सेवा और तप से आत्मा को बनाएं शुद्ध : आचार्यश्री महाश्रमण
वैशाख शुक्ला तृतीया, अक्षय तृतीया।
भगवान ऋषभ के साधिक एक वर्षीय तपस्या के पारणे का अवसर। भगवान ऋषभ के वर्षीतप की तपस्या का आंशिक अनुकरण करते हुए वर्तमान में भी अनेक साधु-साध्वियां एवं श्रावक-श्राविका वर्षीतप की आराधना करते हैं। वर्षीतप की पूर्णाहुति - पारणा करने तपस्वी गुरु चरणों या चारित्रात्माओं के सान्निध्य में पहुंचते हैं। भगवान ऋषभ के प्रतिनिधि, महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में इस वर्ष का वर्षीतप पारणे का आयोजन गुजरात के डीसा नगर में आयोजित हुआ। लगभग 450 वर्षीतप तपस्वियों ने गुरु चरणों में पहुंचकर अपने आराध्य को ईक्षुरस का दान देकर धन्यता का अनुभव किया।
श्री महाराणा प्रताप स्कूल परिसर में बने ‘अक्षय समवसरण’ में आचार्यवर के द्वारा नमस्कार महामंत्र के सम्मुचारण से कार्यक्रम का आगाज हुआ। महातपस्वी आचार्यप्रवर ने अमृतरस का रसास्वादन कराते हुए फरमाया कि 'धम्मो मंगल मुक्किट्ठं' - दसवैकालिक आगम का यह प्रथम अध्ययन का प्रथम श्लोक है। इसमें धर्म की महिमा बतायी गयी है कि जो व्यक्ति धर्म में रत रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म से आत्मा शुद्ध बनती है। धर्म के तीन प्रकार बताये गये हैं - अहिंसा, संयम और तप।
एक समय के पश्चात लें यथोचित मोड़
आज का अक्षय तृतीया का समारोह मुख्यतः तप से जुड़ा, तप की संपन्नता का दिन है। परम पावन प्रातः स्मरणीय भगवान ऋषभ के वर्षीतप का पारणा आज के दिन ही हुआ था। भगवान ऋषभ इस भरत क्षेत्र के वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर, प्रथम केवली, प्रथम धर्म चक्रवर्ती हुए थे। भगवान ऋषभ के जीवन पर दृष्टिपात किया जाए तो उनका जीवन अनेक आयामों में विभक्त हो सकता है। उन्होंने गृहस्थ जीवन जीया, अनेक कलाएं सिखायीं, प्रथम राजा बने, राजनीति से प्रशासन संभाला। राजा का दायित्व होता है - सज्जनों की रक्षा करना, असज्जनों को दण्डित करना और प्रजा का भरण-पोषण करना।
राज्य त्याग कर अपने पुत्रों को व्यवस्था दी। भगवान ऋषभ ने चैत्र कृष्णा नवमी को साधुपन स्वीकार किया था। यहाँ से उनका अध्यात्म का आयाम प्रारम्भ होता है। व्यक्ति को एक समय के पश्चात यथोचित मोड़ लेना चाहिये। यह प्रेरणा हम भगवान ऋषभ के जीवन से ले सकते हैं। भगवान ऋषभ ने वर्षीतप किया नहीं था। उनके तो वर्षीतप हो गया था, कारण कि लोगों को उस समय सुपात्र दान देने का ज्ञान नहीं था। आज का दिन उनके वर्षीतप की सम्पन्नता का दिन है। हमारे धर्म संघ के कितने साधु-साध्वियां, समणियां और श्रावक-श्राविकाएं वर्षीतप की आराधना करने वाले हैं। वर्षीतप एक सुन्दर तपस्या का निमित्त है।
तीन चीजें हैं - स्वाध्याय, सेवा और तपस्या। हमारे धर्म संघ में बहुश्रुत परिषद है। मुख्यमुनि इसके वर्तमान संयोजक हैं। इसमें सात सदस्य हैं - साध्वी प्रमुखाजी, साध्वीवर्याजी, मुनि दिनेशकुमारजी, बाहर में मुनिश्री उदितकुमारजी स्वामी, शासन गौरव साध्वी राजीमतीजी और शासन गौरव साध्वी कनकश्रीजी ‘लाडनूं’। हमारे धर्म संघ में श्रुताराधना चलती है। आगम सम्पादन व अध्ययन करना और कराने का कार्य होता है। स्वाध्याय, सेवा और तप का अपना-अपना महत्व है। तप करने वाले साधुवाद के पात्र हैं। पूज्यवर ने वर्षीतप करने के दौरान आवश्यक साधना रूप में वर्षीतप के नियमों को समझाया कि वर्षीतप करने वालों को रात्रि चौविहार तो अवश्य करना है।
पूज्यवर ने नए सिरे से वर्षीतप स्वीकार करने वालों को प्रत्याख्यान करवाये। पूर्व में कृत वर्षीतप में कोई अतिचार-दोष लगा हो तो उसके प्रायश्चित के रूप में तेरह सामायिक की आलोचना प्रदान करवाई। पूज्यप्रवर ने आगे फरमाया - आप सभी वर्षीतप न भी कर सकें पर जीवन में धार्मिक साधना चलती रहे। धर्म संघ में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं रत्नों की माला हैं। जितना त्याग-व्रत है, उस दृष्टि से श्रावक-श्राविकाएं रत्नों की माला हैं।
दीक्षा प्रदाता की स्मृति
आज ही के दिन छह वर्ष पूर्व जयपुर में मंत्री मुनिश्री सुमेरमलजी ‘लाडनूं’ का महाप्रयाण हो गया था। उनके पास अच्छा ज्ञान था। उन्होंने धर्म संघ की बहुत सेवा की थी। चार मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान करवायी थी, उनमें से मैं भी एक हूं।
श्रावक समाज को निर्देश
तेरापंथ श्रावक समाज है। आपके गृहस्थ कार्य चलते हैं पर यह ध्यान रहे कि आपके पारिवारिक प्रसंगों में शराब का उपयोग न हो। पूज्य प्रवर ने विगत में हुई गलती के लिए परिवारों के मुखिया और संभागी लोगों को क्रमशः नमस्कार महामंत्र के जप के साथ 7 सामायिक और 2 सामायिक करने का इंगित प्रदान करवाया। हमारे धर्म संघ में अनेक संस्थाएं हैं जो अच्छा कार्य कर रही हैं। अनेक रूपों में सेवा करने वाले हैं। ज्ञानशाला व उपासक श्रेणी भी है। हमारा धर्म संघ अच्छा विकास करता रहे। आज का कार्यक्रम डीसा में आयोजित हो रहा है। डीसा मुनि शांतिप्रिय जी से जुड़ा क्षेत्र है, यहां की जैन-अजैन जनता में भी धार्मिक विकास होता रहे।
निर्जरा और आत्मा विशुद्धि के लिए हो तपस्या
आचार्यप्रवर के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने तप के महत्व को समझाते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में साध्य को प्राप्त करने के लिए अनेक साधन बताये गये हैं। जैन धर्म में तप को मोक्ष प्राप्ति का, साध्य प्राप्त करने का साधन बताया गया है। आगमों में 10 धर्मों का उल्लेख बताया है, उनमें से एक है तप। मोक्ष मार्ग के चार मार्गों में एक मार्ग है - तप। अक्षय तृतीया का दिन तप से जुड़ा है। इस दिन भगवान ऋषभ ने पारणा किया था। आज अनेक साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाएं वर्षीतप का पारणा करने उपस्थित हुए हैं। संचित कर्मों को क्षय करने के लिए तप किया जाता है। जन्म-जन्म के संचित कर्मों का तप द्वारा निर्जरण किया जा सकता है। भगवान ने कहा है कि तुम तपस्या व संयम में पुरुषार्थ करो। जिसके द्वारा इंद्रियां व शरीर तप्त होता है, कर्म रजें जल जाती हैं, वह तप है। व्यक्ति भौतिक लक्ष्य के लिए, पौद्गलिक सुख के लिए तपस्या न करे। तपस्या मात्र निर्जरा और आत्मा विशुद्धि के लिए हो। तपस्या से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शांति प्राप्त होती है। तपस्या सबसे बड़ी औषधि है जो शारीरिक बीमारी के साथ भव भ्रमण की बीमारी को दूर करती है। बाह्य तप के साथ आभ्यंतर तप भी जुड़ जाये तो सोने में सुहागा हो जाता है।
साध्वीवर्याजी ने ‘अद्भुत तेज तुम्हारा’ गीत का सुमधुर संगान किया।
मुख्यमुनि महावीर कुमारजी ने कहा कि भगवान ऋषभ एक महापुरुष थे। उनका अवतरण इस धरती पर हुआ था। उन्होंने 83 लाख पूर्व वर्षों तक गृहस्थ, राजनीतिक जीवन जीया था। लोक व्यवहार को पूर्ण कर भगवान ऋषभ अध्यात्म के पथ पर प्रवर्धमान हो गये। मुख्य मुनि प्रवर ने भगवान ऋषभ के वर्षीतप एवं श्रेयांस द्वारा पारणा के प्रसंग का विवेचन किया। प्रवास व्यवस्था समिति डीसा के अध्यक्ष विनोद बोरदिया ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। तेरापंथ महिला मंडल ने गीत की प्रस्तुति दी। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने सुंदर प्रस्तुति दी। अखिल भारतीय अणुव्रत न्यास से शांति कुमार जैन ने तप से होने वाले वैज्ञानिक बदलाव के बारे में विचार रखे। तीन साध्वीवृंद और चार संतवृंद ने आचार्यश्री के समक्ष अपने वर्षीतप सम्पन्न किए। श्रावक-श्राविकाओं ने आचार्यश्री को ईक्षुरस का दान करते हुए अपना-अपना वर्षीतप सम्पन्न किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।