
गुरुवाणी/ केन्द्र
विशेष प्रज्ञा के धनी थे आचार्यश्री महाप्रज्ञजी : आचार्यश्री महाश्रमण
करुणा निधान आचार्यश्री महाश्रमणजी थराद से लगभग 12 किमी का विहार कर खोरडा गांव स्थित अंबाबेन प्रभुलाल त्रिवेदी आर्ट्स, कॉमर्स एण्ड सांइस कॉलेज परिसर में पधारे। परम पावन आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना में फरमाया कि तत्व का बोध करना और तत्व की समीक्षा करना एक अच्छी वृत्ति होती है। यथार्थ को हम समझने का प्रयास करें और समुचित रूप में समीक्षा करें। तटस्थ समालोचना की बुद्धि होती है और उसका उपयोग किया जाता है तो हमें यथार्थ का साक्षात्कार प्राप्त हो सकता है। स्वयं सत्य का अन्वेषण करें। अतीन्द्रिय ज्ञान हो जाए, फिर तो तर्क की बात भी नीचे रह जाती है। प्रज्ञा एक ऐसी उपलब्धि हो सकती है, जिसके द्वारा आदमी गहराई में जा सके। प्रज्ञा की स्थिति में राग-द्वेष की निरपेक्षता होती है। जहाँ पक्षपात है, वहाँ थोड़ी मलिनता हो जाती है। निष्पक्ष बुद्धि से समझना महानता की बात होती है। परम बात है कि यथार्थ को समझने-समझाने की चेष्टा हो। राग-द्वेष मुक्तता प्रज्ञा का श्रृंगार हो सकता है। आज वैशाख कृष्णा एकादशी है। हमारे परम वंदनीय आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की पंद्रहवीं वार्षिक तिथि है और सोलहवाँ महाप्रयाण दिवस है। आचार्यश्री नब्बेवें वर्ष में चल रहे थे। वे छोटे से गाँव टमकोर में जन्मे थे। गाँव भले छोटा हो पर व्यक्ति बड़ा बन सकता है। पूज्य कालूगणी से 11 वर्ष की अवस्था में सरदारशहर में दीक्षित हुए, मुनि तुलसी उनके संरक्षक थे। आठवें दशक में वे आचार्य बने थे, हमारे नाथ बन गए थे। मुनि अवस्था में ही वे हमारे धर्म संघ में एक प्रभावशाली संत के रूप में विख्यात थे। विद्वान संतों में उनका नाम आता था। साधना, वक्तृत्व, आचार-निष्ठा एक आयाम है तो वैदुष्य भी एक आयाम है। वे ज्ञान की दुनिया में जिए थे। उनमें ज्ञान और प्रज्ञा का वैभव था। विशेष बात यह थी कि अपने गुरु की विद्यमानता में वे आचार्य बन गए थे। यह विलक्षण घटना थी। पूज्य डालगणी भी इस मायने में विलक्षण आचार्य थे — वे पूर्वाचार्य द्वारा नियुक्त नहीं हुए थे। गुरुदेव तुलसी ने अपने जीवनकाल में आचार्य पद छोड़ दिया था, इसलिए वे भी विलक्षण आचार्य थे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के साहित्य और प्रवचनों में वैदुष्य निखरता था। गंभीरता युक्त उनका भाषण होता था। उनकी भाषा काफी स्पष्ट, उच्चारण में शुद्धता और गले में मधुरता होती थी। उनके साहित्य में सच्चाई को निकटता से देखा जा सकता है। उनकी प्रज्ञा विकास को प्राप्त हो गयी थी। उनके साथी मुनिश्री बुद्धमलजी स्वामी भी विद्वान संत थे। प्रज्ञा का विकास होना एक उपलब्धि है। पूज्यप्रवर ने युवाचार्य महाप्रज्ञ जी और मुनि बुद्धमलजी के प्रसंगों के माध्यम से बताया कि विद्वता और तार्किकता हो तो किसी का बात का खंडन किया जा सकता है। मंडन श्रद्धा से भी किया जा सकता है और तर्क के आधार पर भी किया जा सकता है।
पूज्यवर ने आगे फरमाया - किसी प्रसंग पर एक बार मुनिश्री धर्मरुचिजी स्वामी ने कहा था – 'आपका जो आदेश है हमें वही करना है, और हमारा निवेदन है कि यह बात ऐसे हो जाए तो ठीक रहे। हमें करना वही है जो आप कहेंगे।' इसमें समर्पण और तार्किकता दोनों बातें आ जाती है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी विशेष प्रज्ञा के धनी थे। उनमें ज्ञान और प्रज्ञा का वैभव था। उनका प्रवचन भी साहित्य बन जाता था। गुरुदेव तुलसी में महाप्रज्ञ और महाप्रज्ञ में गुरुदेव तुलसी को देखा जा सकता था। दोनों लंबे काल तक गुरु-शिष्य के रूप में साथ रहे थे। पूज्यप्रवर ने गुरुदेव तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ जी के विभिन्न संस्मरणों की शब्द यात्रा करवाई। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने नवें दशक में भी यात्राएँ की थीं। सन् 2010 का चातुर्मास करने सरदारशहर पधारे और आज के दिन आचार्यश्री ने प्रवचन भी किया था। पर कुछ घंटों बाद सारी स्थिति बदल गई और महाप्रयाण हो गया। मुझ पर तो उनकी असीम कृपा रही थी। मैं उनको श्रद्धा से याद करता रहता हूँ। पूज्यवर ने स्वरचित गीत 'करें हम वन्दना सविनय गुरु महाप्रज्ञ मतिधर को' का सुमधुर संगान करवाया। आचार्यश्री ने मुख्यमुनिश्री को दो वर्ष पूर्व बहुश्रुत परिषद का संयोजक बनाए जाने के संदर्भ पावन प्रेरणा एवं आशीर्वचन प्रदान किया।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि आचार्यश्री हमें पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के जीवन-प्रसंगों को चलचित्र की तरह खींचकर दिखा देते हैं। हम उनको श्रद्धा से वंदन कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हम उनके जीवन के सूत्रों और रहस्यों को अपनाते चलें, आगे बढ़ते चलें। साध्वीवृंद ने समूह में सुमधुर गीत से भावांजलि अर्पित की। जयपुर से समागत नरेश मेहता ने भी भावांजलि दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।