संत की संतता व सज्जन की सज्जनता बनी रहे : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

लाखणी। 25 अप्रैल, 2025

संत की संतता व सज्जन की सज्जनता बनी रहे : आचार्यश्री महाश्रमण

मर्यादा पुरुषोत्तम आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 12.5 कि.मी. का विहार कर लाखणी स्थित श्री सरस्वती विद्यालय एवं आर्ट्स कॉलेज परिसर में पधारे। पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए पूज्यवर ने फरमाया — 'आदमी जीवन जीता है और यदि वह जीवन में धर्माचरण नहीं करता, सदाचार नहीं करता, बल्कि पापाचरण, दुराचार और भ्रष्टाचार करता है तो उसका मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है। उसकी आगे की गति दुर्गति वाली हो सकती है और अंततः उसे पश्चाताप भी करना पड़ सकता है। वह सोच सकता है — 'मुझे मानव जीवन मिला, पर मैंने क्या किया? मैंने धर्म नहीं किया, पाप किया। मैंने सुना है कि नरक भी होता है। अब मेरा क्या होगा? अब तो मौत मुझ पर मंडरा रही है — पता नहीं कब मुझे पकड़ ले! मुझे तो नरक में जाना पड़ेगा।'
ऐसा पश्चाताप उस व्यक्ति को करना पड़ सकता है जो धर्मविहीन और पापयुक्त जीवन जीता है। एक गला काटने वाला शत्रु भी उतना नुकसान नहीं करता, जितना खुद की दुरात्मा बनी हुई आत्मा कर देती है। दुरात्मा भव-भव में कष्ट दिलाने वाली होती है। इसलिए यह ज्ञातव्य है कि हमें जीवन में धर्म के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए। यदि हम पाप और अधर्म के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने लगें, तो जीवन में कठिनाइयाँ आ सकती हैं। आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही अमित्र है। दुष्प्रवृत्त आत्मा शत्रु है, सुप्रवृत्त आत्मा मित्र है। घर में रहते हुए भी एक उम्र के बाद धर्म की प्रवृत्ति में अधिक समय लगाना चाहिए। पूज्यवर ने राजर्षि प्रसन्नचंद के प्रसंग से समझाया कि युद्ध पहले भावों में होता है। भावों के कारण व्यक्ति सातवीं नरक तक जा सकता है और भाव-शुद्धि होने पर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।
एक बार साधुपन भावों में आ गया हो, तो भटकाव आ जाने पर भी वह व्यक्ति अंततः अपने घर (धर्मपथ) की ओर लौटता है। धर्म उपासनात्मक भी होता है और आचरणात्मक भी। कितने ही साधु-साध्वियाँ और श्रावक-श्राविकाएँ वर्षीतप की आराधना करते हैं। तप कर्म-निर्जरा का साधन है। मूलतः आत्मा की शुद्धि होनी चाहिए। दुनिया में अनेक प्रकार के मनुष्य मिल सकते हैं — सज्जन भी और दुर्जन भी। हम अपनी सज्जनता को न छोड़ें। दुष्ट प्राणी अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता, तो संत अपनी संतता को क्यों छोड़ें? संत की संतता और सज्जन की सज्जनता बनी रहनी चाहिए। हमें अपनी आत्मा को यथासंभव मित्र बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। पूज्यवर के स्वागत में लाखणी जय केलवाणी मंडल की ओर से ट्रस्टी कीर्तिलाल शाह और विद्यालय की ओर से मावजीभाई पटेल ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।