
संस्थाएं
महातपस्वी धर्मदिवाकर युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी के 64वें जन्मोत्सव, 16वें पट्टोत्सव एवं 52वें दीक्षा दिवस पर सादर अभिवंदना
दुनिया में दो तरह के व्यक्ति होते हैं। पहले प्रकार के व्यक्ति शक्तिसंपन्न और ज्ञानसंपन्न होते हैं, उनमें निर्णय लेने की भी क्षमता होती है। दूसरे प्रकार के व्यक्ति कमजोर, अल्पज्ञ और शक्तिहीन होते हैं। प्रथम वर्ग के व्यक्ति बहुत ऊंचाइयों का स्पर्श कर लेते हैं, जबकि दूसरे वर्ग के व्यक्ति कुछ कदम चलकर थक जाते हैं। प्रश्न है–प्रथम प्रकार के व्यक्ति में ऐसी कौन-सी विशेषता है, जो उनको उत्तरोत्तर अग्रिम सोपानों पर आरोहण कराती है।
सन् २००४ में एक शोध duहुआ। उसमें यह स्पष्ट किया गया कि जिनमें आत्म-नियंत्रण होता है उनको शैक्षणिक जगत में सफलता मिलती है और उनकी क्षमताओं का ज्यादा विकास होता है। एक अन्य शोध में भी यही तथ्य उभरकर सामने आया–आत्म-संयम (Self Restraint) व्यक्ति के लिए सफलताओं का द्वार उद्घाटित कर देता है। संयम से नेतृत्व क्षमता के साथ-साथ अन्य क्षमताएं भी विकसित होती हैं, जैसे–कार्य करने से पूर्व चिंतन, विवेकपूर्ण निर्णय, सम्यक् योजना बनाना, शांत और विश्लेषणात्मक तरीके से समस्याओं का समाधान, प्रभावशाली संवाद शैली, सुनने की कला, दूसरों की आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की सम्यक्तया आपूर्ति, एकाग्रता, उत्तम समय प्रबंधन, आत्मविश्वास आदि। आश्चर्य होता है कि क्या आत्मसंयम से इतनी शक्तियों का एक साथ विकास हो सकता है? कुछ विरल व्यक्तियों में इन अर्हताओं का विकास देखा जा सकता है और इसका साक्षात् निदर्शन है आचार्य महाश्रमणजी।
आचार्य महाश्रमणजी सहजता, शांति, स्नेह और वात्सल्य के साथ विशाल धर्मसंघ का कुशलता से संचालन कर रहे हैं। उनकी प्रबन्धन शैली, प्रवचन शैली, प्रशासन शैली, समस्या-समाधान शैली, अनुशासन शैली मनोवैज्ञानिक और आकर्षक है। इसका प्रमुख कारण है उनका संयम। उनके पवित्र श्रामण्य का आधार है संयम। संयम से तात्पर्य है इन्द्रिय और मन का निग्रह, अकुशल कार्यों से निवृत्ति और कुशल कार्यों में यतनापूर्वक प्रवृत्ति। पातंजल योगदर्शन के अनुसार 'त्रयाणामेकत्रसंयमः' अर्थात् ध्यान, धारणा और समाधि की समन्विति संयम है। ठाणं सूत्र में तीन प्रकार के संयम का उल्लेख मिलता है–१. मन का संयम २. वचन का संयम ३. काय का संयम।
मन-संयम
जीवन में सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण कार्य है मन का संयम। मन कभी अतीत की यात्रा करता है, कभी भविष्य की योजनाओं में निमग्न हो जाता है और कभी वर्तमान में जो कार्य सामने है, उस पर चिन्तन करता रहता है। आचार्य महाश्रमणजी अपने मन की लगाम को अपने हाथ में रखते हैं, उसे उन्मुक्त नहीं छोड़ते। वे मनोरंजन की दुनिया में नहीं, आत्मरंजन की दुनिया में जीते हैं, जहां मन बहुत पीछे रह जाता है। उनका मन पानी की तरह चंचल नहीं, अपितु बर्फ की तरह सघन है, स्थिर है, एकाग्र है। एकाग्रता के कारण वे एक कार्य के मध्य दूसरा कार्य भी सम्पादित कर लेते हैं, किन्तु उनकी एकाग्रता भंग नहीं होती। मध्याह्न में प्रायः आचार्यवर मुख्यमुनिप्रवर को पत्रलेखन कराते हैं। उसी दौरान अन्य लोग भी आचार्यवर के पास अपनी समस्या को प्रस्तुत करते हैं। आप उनकी बात सुनते हैं, अपनी अन्तःप्रज्ञा से उनको समाहित कर देते है और पुनः मूल विषय पर आ जाते हैं। यह सब तभी संभव है जब मन का संयम सधा हुआ होता है। मन की निर्मलता और एकाग्रता के कारण ही एक विशाल संघ का कुशलता से नेतृत्व कर रहे हैं।
दो प्रकार के मन होते हैं। Should mind अर्थात् क्या करना चाहिए? क्या करना उचित है? दूसरा है Want mind, क्या चाहता है? चाह हितकर भी हो सकती है और हितकर नहीं भी होती। जिसके संयम की चेतना जागृत होती है, वह Want mind पर विजय प्राप्त कर Should mind के अनुसार उचित निर्णय लेता है। आचार्य महाश्रमणजी का Should mind बहुत अधिक powerful है, हमेशा जनहित और जन-कल्याण का ही चिन्तन करता है।
वाक्-संयम
हमारे अधिकांश कार्य वाणी से होते हैं। वाणी connector भी हो सकती है और cutter भी। समस्याओं को सुलझा भी सकती है और उलझा भी सकती है। किसी के मन को शांत कर सकती है और किसी को अशान्त। आचार्य महाश्रमणजी को मानो मधुर और कल्याणकारिणी वाणी का वरदान प्राप्त है। आप सहज संयताभाषी हैं। संयतभाषी वह होता है, जो कटु, कर्कश, सावद्य, निश्चयकारिणी भाषा नहीं बोलता, अन्य व्यक्ति कुपित हो ऐसी भाषा भी नहीं बोलता है। वह उसी भाषा का प्रयोग करता है, जो सत्यपथगामिनी, उत्थानकारिणी और मृदु हो। आचार्य महाश्रमणजी के जीवन में ये सारी विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। उनका वाक्संयम विलक्षण है। आज minimum investment maximum achievement का युग है। आचार्य महाश्रमणजी अल्प शब्दों के प्रयोग से बहुत कुछ बता देते हैं और आगन्तुकों को संतुष्ट भी कर देते हैं। अल्प में बहुत कुछ बता देना उनकी वाक् कला का वैशिष्ट्य है। कभी-कभी साधु-साध्वियों को सीमित शब्दों में संदेश प्रेषित करते हैं लेकिन जो बात अपेक्षित है वह उसमें आ जाती है। उनका प्रत्येक शब्द करुणा, वत्सलता, प्रेरणा, ऊर्जा और सकारात्मकता से भरपूर होता है।
सुकरात के पास एक व्यक्ति आया। कहा– ''मैं आपके शिष्य के विषय में कुछ कहना चाहता हूं।' सुकरात ने पूछा- 'तुम जो बात कहना चाहते हो, क्या वह बात सत्य है? क्या वह अच्छी है? क्या वह उपयोगी है?' उस व्यक्ति ने प्रत्युत्तर में कहा– 'वह बात सत्य नहीं है, अच्छी नहीं है और उपयोगी भी नहीं है।' सुकरात ने कहा– 'ऐसी निरर्थक बात कहकर मेरा समय क्यों बर्बाद कर रहे हो।' आचार्य महाश्रमणजी भी उसी बात को सुनना या कहना पसंद करते हैं, जो बात सत्य हो, अच्छी हो और उपयोगी हो।''
आचार्य महाश्रमणजी सत्य महाव्रत, भाषा समिति और वाग्गुप्ति की समग्रता से साधना कर रहे हैं। एक बार जनता को संबोधित करते हुए आपश्री ने कहा था- ''जो साधक मिष्ट (मधुर), शिष्ट और इष्ट भाषा का प्रयोग करता है वह अपनी वाणी को विशिष्ट बना लेता है।'' आचार्यप्रवर ने मिष्ट, शिष्ट और इष्ट भाषा का प्रयोग कर वाणी को विशिष्ट बनाया है। यही वजह है कि उनके वचन आदेय हैं। वे किसी भी कार्य के लिए किसी को भी कोई निर्देश देते हैं, वह व्यक्ति तत्काल उस कार्य को करने के लिए तत्पर हो जाता है। वे वचन वर्गणा के पुद्गलों का स्वल्पतम उपयोग करते हुए भी हर कार्य को बड़े अच्छे ढंग से संपादित करते हैं। आचार्य महाश्रमणजी का जीवन वाक्संयम का उत्कृष्ट उदाहरण है।
काय-संयम
भिक्षु की एक कसौटी है काय-संयम। वह अपने शरीर की प्रवृत्तियों का संयम करता है। वह हाथों को, पांवों को संयत रखता है। जो हाथ हिंसा न करे, अदत्त ग्रहण न करे, असत्य का संकेत न करे, असत्य लेखन न करें तथा किसी भी प्रकार के अनाचरणीय कार्य न करें वे संयत हाथ होते हैं। आचार्य महाश्रमणजी के हाथ इन सब नकारात्मक कार्यों से सर्वथा दूर रहते हैं। उनके हाथ करुणा से प्रवृत्त होते हैं तो प्रमार्जन करते हैं, वत्सलता के लिए उठते हैं तो आशीर्वाद देते हैं, जनकल्याण करते हैं और जब शिष्य के मस्तक पर टिकते हैं तो ऊर्जा का संप्रेषण करते हैं।
पैरों का संयम व्यक्ति की ऊर्जा का संरक्षण करता है। भिक्षु के लिए पांव का संयम भी आवश्यक है। पैर शरीर का अनिवार्य अंग है। कहा जाता है बिना पर का पक्षी और बिना पैर का मनुष्य बेकार होता है। पैर गतिशीलता के प्रतीक हैं। साधु कब, कहां, कैसे उनका उपयोग करे, इसका विवेक आवश्यक है। आचार्य महाश्रमणजी ने अपने पैरों का संयम साध लिया। मुनि अवस्था में घण्टों-घण्टों तक एक आसन में बैठकर ध्यान का प्रयोग करते थे। वर्तमान में भी मुख्य कार्यक्रम में प्रायः सुखासन में विराजमान रहते हैं। यदि आसन बदलना भी हो तो धीरे से बदलते हैं। यदि कुर्सी पर विराजते हैं तब भी पैरों की संयत मुद्रा रहती है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है मानो स्थिरता मूर्तिमान हो गई है। यह है पैरों का निवृत्ति पक्ष। दूसरी ओर जनकल्याण के लिए हजारों किमी. की पदयात्राएं कर रहे हैं। उनका एक-एक कदम भी ईर्यासमितिपूर्वक यानी पूरी जागरूकता से उठता है। रास्ते में कच्चा पानी हो, हरियाली हो, उस रास्ते का अतिक्रमण नहीं करते। यहां तक की यदि पक्षी दाना चुग रहे हों तो उस मार्ग से भी गुजरना नहीं चाहते। पैरों का अनावश्यक हलन-चलन भी नहीं करते। कभी करना पड़े तो प्रमार्जनपूर्वक करते हैं। ५-१० मिनट तक एक आसन में बैठना भी मुश्किल होता है, वहां एक आसन में लम्बे समय बैठना आचार्यवर की स्थितप्रज्ञता का परिचायक है।
बाह्य जगत् से सम्पर्क का माध्यम है इन्द्रियां। इन्द्रियों के मनोनुकूल विषय सामने हों और उनमें प्रियता का भाव न जागे, क्या यह संभव है? हां संभव है। इसके स्वयंभू साक्ष्य हैं आचार्य महाश्रमण। आकर्षण या प्रियता जैसे शब्द उनके शब्दकोश में भी नहीं है। अनुकूल या प्रतिकूल दृश्य हो या शब्द, आहार हो या कोई अन्य वस्तु, आचार्य महाश्रमणजी के मध्यस्थ भाव अथवा वीतराग भाव को कोई खण्डित नहीं कर सकता। आचार्यवर इन्द्रियातीत चेतना के स्तर पर जीते हैं। कहा जाता है–Lock the external world, unlock the inner world and experience the true happiness–यह बात उनके जीवन में पूर्णतया चरितार्थ होती है। मई-जून की भीषण गर्मी में जहां लोग घर छोड़ना नहीं चाहते, वहां आप निरंतर पदयात्रा करते हैं। स्थान पर पहुंचने के बाद भी जहां पंखा चलता है, वहां बैठने का चिन्तन भी नहीं करते। स्पर्शनेन्द्रिय विजय का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। पांचों इन्द्रियों से संबंधित कोई भी भोग उनके साधक मन को आकृष्ट नहीं कर सकता।
मन और इन्द्रियों का अधिक उपयोग व्यक्ति की ऊर्जा का क्षरण करता है। आचार्य महाश्रमणजी उनके अल्पतम और यतनापूर्वक उपयोग से, संयम से अपनी मन, वचन और शरीर की ऊर्जा का संरक्षण और संवर्धन कर रहे हैं। ऊर्जावान व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व और नेतृत्व से सबके मन को प्रभावित कर सकता है। कहा गया है-
Heated gold becomes ornament,
Beat copper becomes wire,
Depleted stone becomes statue,
Restraint soul becomes God.