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‘रहस्यवाद’ के आलोक में साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा
आज का युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तेज़ी से बढ़ती प्रगति का युग है। शिक्षा, स्वास्थ्य, भूगोल, संचार और दैनिक कार्यों को सुगम बनाने में विज्ञान की भूमिका असाधारण रही है। विज्ञान ने कई रहस्यों से पर्दा उठाया है, लेकिन अभी भी कुछ तत्व हैं, जो वैज्ञानिक विवेचनाओं से परे हैं, जैसे- ब्लैक होल, बरमूडा ट्रायएंगल, यूएफ़ओ-एलियन्स और साइबेरियन सिंकहोल्स आदि। इन तत्वों का रहस्य अब तक पूरी तरह से उद्घाटित नहीं हुआ है। ये रहस्य यह संकेत करते हैं कि हमारी बुद्धि और इंद्रियों की अपनी सीमाएं हैं और समस्त ज्ञान को केवल तर्क या अनुभव से जान पाना संभव नहीं है। इस संदर्भ में रहस्यवाद का उद्भव हुआ, जो दर्शन की एक महत्वपूर्ण शाखा है।
रहस्यवाद एक आध्यात्मिक यात्रा भी है, जो साधक को आत्मा से परमात्मा की ओर उन्मुख करती है। रहस्यवाद की दिशा में अग्रसर एक साधक की आध्यात्मिक उच्चता को कुछ लक्षणों के आधार पर पहचाना जा सकता है, जैसे- अहं विलय, नियम निष्ठा, आत्मलीनता, समर्पण, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना आदि। ये लक्षण अध्यात्म की दिशा में प्रस्थित विरल व्यक्तियों में ही प्राप्त होते हैं। इन विरल व्यक्तित्वों में एक व्यक्तित्त्व है- साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा। साध्वीप्रमुखाजी का संपूर्ण जीवन रहस्यवाद की एक ऐसी यात्रा है, जिसमें चेतन अहंकार के आवरण को हटाकर परम चेतना से तादात्म्य स्थापित करता है। आपके जीवन में इस रहस्यवाद का प्रभाव और उसकी उपस्थिति को कुछ मानक बिंदुओं के आधार पर स्पष्टतया अनुभव किया जा सकता है। वे मानक बिंदु इस प्रकार हैं-
नियम निष्ठा
परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए कुछ नियमों का पालन अत्यंत आवश्यक है। स्वीकृत नियमों में अडिग रहने वाला व्यक्ति ही इच्छित मंजिल को प्राप्त करने में सफल बन सकता है। सांसारिक उपलब्धियों को हासिल करने में भी नियमों का पालन आवश्यक है, तो आत्मतत्त्व की प्राप्ति में नियमों का दृढ़ता से पालन अत्यन्त आवश्यक हो जाता है।
सीमित समयावधि में आबद्ध नियमों का पालन किसी सीमा तक आसान हो सकता है, किंतु आजीवन नियमों के स्वीकरण एवं पालन में कठिनाइयों का ज्यादा सामना करना पड़ सकता है। मन को चंचल अश्व की उपमा दी गई है। जिस प्रकार अविनीत या चंचल अश्व को नियंत्रित करना कठिन है, उसी प्रकार मन पर दीर्घकाल तक लगाम कसना कुछ कठिन हो सकता है, किन्तु जहां संकल्प शक्ति में दृढता होती है, वहां मन को नियंत्रित करना कठिन नहीं होता। आचार्य महाप्रज्ञजी ने संकल्पशक्ति के विषय में एक श्लोक लिखा है-
संकल्पशक्ति: प्रबला मम स्यात्,
एकाग्रता मे शिखरं प्रयाता।
विनिर्मलं चित्तमिदं विधातुं,
चित्ते प्रसिद्धे सकलं प्रसिद्धम्।।
साध्वीप्रमुखाश्री जी के जीवन में यह श्लोक चरितार्थ हो रहा है। आपके चित्त की प्रसन्नता का आधार - संकल्प शक्ति की प्रबलता है। आप वज्रसंकल्पी व्यक्तित्व की धनी हैं। वर्ष 2003, सूरत चातुर्मास का प्रसंग है। आपके पेट की ओपन सर्जरी हुई थी। डॉक्टर ने तीन महिनों के लिए लम्बे समय तक बैठने का निषेध किया और पेट में झटके न लगे इसका विशेष ध्यान रखने को कहा। जैन साध्वाचार के अनुसार संवत्सरी से पूर्व केश लोच का विधान है। चातुर्मास के प्रारंभिक दिनों में ऑपरेशन हुआ अतः संवत्सरी निकट थी। उस समय तक आपको ऑपरेशन कराये हुए कुछ ही दिन हुए थे। ऐसी परिस्थिति में भी आपने यह नहीं सोचा कि मैं लोच नहीं कराऊँ। बेड पर लेटे-लेटे ही लोच करवा लिया। यह है आपकी नियमों के प्रति निष्ठा। डॉक्टर द्वारा बताए गए नियमों का पालन करते हुए साधुत्व के नियमों का पालन भी यथावत् किया। आपने मानो सबके सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर दिया।
वर्तमान युग में यंगस्टर्स का एक स्वर सुनाई दे रहा है- ‘नियम तो तोड़ने के लिए बनाए जाते हैं।’ किंतु युवावस्था से ही आपका आदर्श रहा- ‘नियम जीवन की उन्नति के लिए बनाए जाते हैं।’ वैराग्य प्रस्फुरण के समय से ही आप नियमों के प्रति जागरूक रही। एक बार जो संकल्प किया, उसके लिए सदा कटिबद्ध रहे- 3.30 बजे जागरण, आगम आदि ग्रंथों का स्वाध्याय। संयम ग्रहण के पश्चात् - गुरू दर्शन के बाद आहार ग्रहण करना, आहार के मध्य न बोलना। यदि बोलना पड़े तो खड़े होकर बोलना, कैसी भी परिस्थिति हो, प्रतिक्रमण के मध्य न बोलना।
इस पंक्ति को लिखते हुए मुझे विगत महावीर जयंती की शाम याद आ गई। आपश्री के उपवास था। उस शाम गुरुवर सहित सभी गुरुकुलवासी साधु-साध्वियों का विहार था। विहार के पश्चात् साध्वियां आपके सान्निध्य में प्रतिक्रमण कर रही थीं। गर्मी की अधिकता के कारण आपका जी-घबराने लगा। प्रतिक्रमण के मध्य वमन हुआ। इस निमित्त वहां उपस्थित साध्वियों में चर्चा होने लगी। कुछ कह रहे गर्मी अधिक है, किसी को लगा विहार लम्बा था। आपने संकेत से मौन की प्रेरणा प्रदान करते हुए प्रतिक्रमण चालू रखने को कहा। वमन होने के बाद आपको स्वस्थता का अनुभव हुआ और आप पुनः प्रतिक्रमण में लग गए। इस दौरान आपने मौन व्रत का पालन किया। उस स्थिति में भी आप अपने नियम के प्रति पूर्ण जागरूक थे।
हित-चिंतन
रहस्यवाद की यात्रा में यात्रायित साधक का एक लक्षण है- हित-चिंतन। हित-चिंतन के दो पहलू हैं- 1. स्वहित चिंतन, 2. परहित चिंतन। प्रायः सभी दर्शनों में परहित चिंतन को प्रशस्य माना गया है।
परोपकार पुण्याय, पापाय परपीडनम्।
अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्।।
अधिकांश प्राणी स्वहित चिंतन करते हैं। परहित चिंतन करने वाले कोई-कोई व्यक्ति ही होते हैं। साध्वीप्रमुखाश्रीजी स्वहित चिंतन करते हुए परहित चिंतन को भी गौण नहीं करते हैं।
नानी चिराई गाँव में आचार्यवर का अहिंसा यात्रा के दौरान दो बार पादार्पण हुआ। उस गांव में साध्वियों की ठहरने की व्यवस्था दो स्थानों पर थी। एक स्थान आचार्यप्रवर के नजदीक था, दूसरा 800-900 मीटर दूर स्थित था।
जब प्रथम बार पादार्पण हुआ तब साध्वीप्रमुखाजी गुरुदेव के पास वाले स्थान पर ठहरे, किंतु जब पुनः पधारे तब आपने गुरुदेव के पास वाले स्थान पर ठहरने की मनाही कर दी। साध्वियों ने निवेदन किया कि जब आप दोपहर में 2 बजे आचार्यप्रवर की सेवा में पधारेंगे तो बहुत तेज धूप होगी। आप कृपाकर उसी स्थान पर विराज जाएं। साध्वीप्रमुखाजी ने फरमाया— पिछली बार मेरे से दूर रहने में साध्वियों को कठिनाई हुई। इस बार मैं वहां नहीं ठहरूंगी। धूप की कोई खास बात नहीं है। साध्वियों को साता पंहुचनी चाहिए। आपने परहिताय स्वयं कष्ट का मार्ग स्वीकार किया।
आत्मतत्त्व या परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए परहित चिंतन सदा अपेक्षित है। आप स्वयं के विश्राम के समय, स्वाध्याय-अध्ययन के समय को गौण कर परहिताय प्रयत्नरत रहते हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक या संगठनात्मक संस्थाओं को समय प्रदान करवाते हैं। शोकाकुल परिवारों को भी संभालते हैं। महिला मण्डल, कन्या मण्डल के विकास के बारे में भी चिंतन कराते हैं। इस प्रकार विभिन्न माध्यमों द्वारा आप परहित चिंतन में संलग्न रहते हैं।
समर्पण
आत्मतत्त्व या परमत्तत्त्व की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण बिंदु है- समर्पण। समर्पण को दूसरे शब्दों में अहं-विलय भी कह सकते हैं। अहं को विलीन किये बिना समर्पण संभव नहीं हो सकता है। आचार्यों का छोटी चीज के लिए इंगित हो या बड़ी चीज के लिए, वह आपके लिए सर्वोपरि होता है। आचार्यों की दृष्टि के अनुसार कार्य करने में तत्पर रहते हैं। इसके साथ ही औरों को भी गुरु-दृष्टि के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं।
तेरापंथ के आचार्यों द्वारा साध्वीप्रमुखाओं को कुछ अधिकार प्राप्त हैं, किंतु साध्वीप्रमुखाओं को इस बात का अहं कभी छू नहीं पाया। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के मुख से हम अनेक बार यह सुनते हैं- जैसे गुरुदेव की दृष्टि होगी, वैसे ही हम कार्य कर लेंगे। यहां तक की कोई अपने घर पर शय्यातर का अवसर प्रदान करने का निवेदन करता है तब भी आपके मुख से यही सुनने को मिलता है- गुरुदेव जैसा फरमाएंगे, हम वैसा ही कर लेंगे। शासन माता को हमने देखा। उन्हें जब साध्वियां किसी नए विषय के बारे में जिज्ञासा करती तो वे प्रायः यही फरमाते कि गुरुदेव से पूछकर बताउंगी। यही बात हम वर्तमान में साध्वीप्रमुखाश्री जी के जीवन में देखते हैं। कोई भी नई प्रवृत्ति शुरू करने से पूर्व गुरुदेव से मार्गदर्शन लेते हैं। आपका हर कार्य गुरुदेव की दृष्टि के अनुरूप होता है। गुरु इंगित की आराधना आपका प्रमुख ध्येय रहता है। यह समर्पण और जागरूकता साध्वी समाज के लिए अनुकरणीय है।
साध्वीप्रमुखाश्री जी का जीवन केवल तप और संयम का नहीं, बल्कि एक रहस्यवादी साधक का जीवन है। आप ‘आत्मा भिन्न शरीर भिन्न’ इस अनुभूति को जीते हैं। आपका जीवन इस बात का प्रमाण है कि रहस्यवाद कोई दार्शनिक कल्पना मात्र नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक गहन और अनुशासित शैली है। आपकी जीवन-यात्रा वर्तमान युग के जिज्ञासु साधकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। नियम-निष्ठा, संकल्प-शक्ति और समर्पण — ये सभी रहस्यवाद की अनिवार्य शर्तें हैं, जिन्हें आपने अपने जीवन में साकार किया है। वर्तमान युग के अनुरूप और आत्मतत्त्व के साक्षात्कार के लिए सदैव प्रयत्नशील साध्वीप्रमुखाश्री जी का जीवन तेरापंथ साध्वी समाज के लिए एक निदर्शन है। चयन दिवस के अवसर पर हम साध्वीप्रमुखाश्री जी से यही आशीर्वाद चाहते हैं कि हम भी आत्मतत्त्व की खोज में उनके गुणों को अपनाकर अपनी लक्षित मंजिल प्राप्त कर सकें।