प्रसादत्रयी के आलोक से उद्भासित साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा

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साध्वी मुदितयशा

प्रसादत्रयी के आलोक से उद्भासित साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा

साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के 68वें जन्मदिवस का प्रसंग था। परमपूज्य आचार्यप्रवर ने शुभाशीर्वाद प्रदान करते हुए फरमाया— जीवन में तीन बातों का विशेष महत्व है: 1. शरीरबल, 2. मनोबल या मानसिक प्रसन्नता, 3. मानसिक शांति। साध्वीप्रमुखा जी का मनोबल अच्छा है और सहज मानसिक शांति बनी रहती है। इन दोनों का होना सौभाग्य का प्रतीक है। ये दोनों यदि हैं तो कदाचित् शरीर की दृष्टि से कोई कठिनाई भी आ जाए तो वह ज्यादा प्रभावित नहीं करती। पार्श्वस्थित मुख्यमुनिश्री ने निवेदन किया— गुरुदेव! कभी-कभी की बात छोड़ दें, प्रायः स्वास्थ्य भी अनुकूल रहता है। शरीरबल को भी 90% अंक दिए जा सकते हैं।
सारी बात सुनकर आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा प्रणीत एक श्लोक सहसा मेरे स्मृतिपटल पर उभर आया। आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैं—
देहप्रसादो रसनाजयेन, मनःप्रसादः समताश्रयेण।
दृष्टिप्रसादो ग्रहमोचनेन, पुण्यत्रयीयं मम देव! भूयात्।।
शारीरिक स्वास्थ्य और श्रमशीलता
साधना का पहला और सशक्त माध्यम है शरीर। इसीलिए कहा गया है— 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' जिसका शरीर स्वस्थ है, वह सक्रियता का जीवन जी सकता है। उसे कितना भी श्रम करना पड़े, वह कभी पीछे नहीं हटता। साध्वीप्रमुखाश्रीजी के जीवन में श्रमशीलता है। जहां श्रम की सुवास होती है, आने वाला हर व्यक्ति स्वतः आकर्षित होता है। यात्रा के दौरान आचार्यप्रवर नए-नए क्षेत्रों में पधारते हैं। लोग अपने-अपने घरों में पधारने की प्रार्थना करते हैं। साध्वीप्रमुखाजी प्रायः दूर-दूर तक के घरों में भी पधारती हैं। चातुर्मास के समय भी, चाहे किसी के जन्मदिन का प्रसंग हो या शादी की सालगिरह का, बीमार या वृद्ध को दर्शन देने का अवसर हो या तपस्या के पारणे का, प्रायः प्रतिदिन गोचरी के लिए पधारना हो जाता है। कभी-कभी तो दोनों-तीनों समय भी कहीं न कहीं पधारना होता है। श्रम के साथ आपकी सहजता और प्रसन्नता अनुकरणीय है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में— ‘तपे बिना कोई ज्योति नहीं बनता और खपे बिना कोई मोती नहीं बनता, इसलिए श्रम करो, सफल बनो।’ साध्वीप्रमुखा जी की श्रमशीलता उनकी सफलता का स्वयंभू साक्ष्य है।
आहार-संयम के प्रयोग
हमारे शरीर के लिए आहार जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है आहार का संयम और अस्वाद की साधना। साध्वीप्रमुखाश्रीजी का आहार-संयम अद्भुत है। प्रायः आहार-संयम और स्वादविजय की साधना के प्रयोग करती रहती हैं। आपके द्वारा किए गए कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं—
•v समणश्रेणी में वर्षों तक चीनी का परिहार।
•v प्रत्येक रविवार को नमक का और अमावस्या को अन्न का परिहार। बाद में अमावस्या को उपवास करना शुरू कर दिया।
• vदिनभर में 21 द्रव्यों की सीमा।
• vतले हुए पदार्थों का पूर्णतया वर्जन।
• vदीक्षित होने के कुछ समय बाद मिष्ठान्न का त्याग। उल्लेखनीय है कि साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा जी द्वारा प्रदत्त ग्रास इसका अपवाद था, अब यह नियम भी मानो निरपवाद बन गया है। शरीर और साधना के लिए हितकर वस्तु को, चाहे वह बेस्वाद और कड़वी ही क्यों न हो, आप सहजता से ग्रहण कर लेती हैं। मात्र स्वाद के आधार पर कभी भी किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करतीं। आहार-संयम और अस्वाद की साधना का ही परिणाम है कि कभी-कभी शारीरिक कठिनाई आती तो है, पर ज्यादा बाधित नहीं करती। स्वल्प समय में ही स्वस्थ होकर आप अपनी मूल दिनचर्या में आ जाती हैं।
साधना का एक महनीय उपक्रम है- तपस्या। कुछ व्यक्ति तपस्याएं कर लेते हैं, पर आहार का संयम नहीं कर पाते हैं। कुछ आहार संयम कर लेते हैं, पर उपवास करना भी उनके लिए कठिन होता है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी कार्य की व्यस्तता के चलते लंबी तपस्या तो नहीं करती, पर उपवास, बेला, तेला आदि करने की अभिरूचि बनी रहती है और बड़ी सहजता के साथ करती भी हैं। गुरुकुलवास में जब भी पचरंगी का अनुष्ठान होता, आप प्रायः पंचोले में अपना नामांकन कराती। आपके मन में नए-नए संकल्प उठते रहते हैं। तुलसी जन्म शताब्दी पर संकल्प कर लिया— इस वर्ष मुझे सौ उपवास करने हैं। उस वर्ष आपने सलक्ष्य सौ से अधिक उपवास करके अपने संकल्प को मानो शिखर तक पहुंचा दिया। पिछले काफी वर्षों से आपके प्रतिमाह पांच उपवास का क्रम चल रहा था। सन् 2020 में छह और सन् 2021 में प्रतिमाह सात उपवास करने का संकल्प कर लिया। प्रतिदिन नवकारसी करना, विहारों में प्राय: मौन और चौविहार या तिविहार प्रहर करना और कुछ न कुछ त्याग प्रत्याख्यान करते रहने में आपकी नैसर्गिक रुचि रहती है। इसे विशेष जागरूकता का भी प्रतीक माना जा सकता है। इस प्रकार आहार-संयम और अनाहार दोनों तरह की तपःसाधना से अनुप्राणित आपका जीवन वर्तमान युग की भोगवादी मानसिकता में जीने वालों के लिए जीवन्त प्रतिबोध है।
मानसिक प्रसन्नता का आधार है समता
जीवन की सफलता का दूसरा महत्वपूर्ण घटक है— मानसिक प्रसन्नता। इसकी पृष्ठभूमि में समता की प्रभावी भूमिका रहती है। जहां जीवन है, वहां सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता, संयोग-वियोग की धाराएं साथ-साथ प्रवहमान रहती हैं। जैसे उदित होते सूर्य की भांति अस्त होता सूर्य भी रक्तिम आभा लिए हुए होता है, वैसे ही कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व हर स्थिति में सदा एकरूप रहते हैं। उनके भावों की पवित्रता का ग्राफ कभी नीचे नहीं आता। ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्वों में एक नाम साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी का लिया जा सकता है।
सौम्यता और मृदुभाषिता
समता की साधना में वही व्यक्ति अवस्थित रह सकता है, जिसके जीवन में सहिष्णुता, संवेग-नियंत्रण और उपशम का भाव सधा हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार— 'जिसके जीवन में सहिष्णुता होती है, वह दूसरों पर भार नहीं बनता, बल्कि उसमें भारवहन की क्षमता आ जाती है। इसी तरह जिसका अपने संवेगों पर नियंत्रण है, वह बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन कर सकता है।' साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी की सहिष्णुता और संवेग-नियंत्रण की साधना विलक्षण है। आपने ‘उवसमसारं सामण्णं’ की आर्षवाणी को अपने जीवन में आत्मसात किया है। आपके व्यवहारों में सौम्यता और वाणी में मृदुता रहती है। किसी की भूल होने पर आप उपालंभ देती हैं, पर कठोर शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करतीं। साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाला समाधिस्थ तभी रह सकता है, जब वह समता की साधना में निष्णात होता है। कहा जाता है – ‘साम्यं श्रितः स्यात् परमात्मरूपः’ - समत्व का आश्रय लेने वाला परमात्म-रूप बन जाता है।
तेरापंथ के दशम अधिशास्ता आचार्य महाप्रज्ञजी करुणा के सागर और ध्यान के शिखर पुरुष थे। साध्वीप्रमुखाजी को निकटता से उनकी सेवा का अवसर मिला। आपने उनकी अनन्य कृपा प्राप्त की। सन् 2010 में अकस्मात् उनका महाप्रयाण हो गया। रिक्तता के उन क्षणों में भी आपकी समता और संतुलन देखकर आश्चर्य की अनुभूति होती थी। उस चातुर्मास में आने वाले अनेक लोगों ने कहा — महाराज ! आपकी समता और सहजता स्तुत्य है, हमारे लिए तो प्रेरक बोधपाठ है। जो व्यक्ति समता और संतुलन की डोर से बंधा रहता है, वह नित नई ऊंचाइयों का स्पर्श करता है। उसकी प्रसन्नता को कोई खंडित नहीं कर सकता। 'मनःप्रसादः समताश्रयेण' से भावित आपका जीवन सबके लिए प्रेरणा है।
दृष्टि बनाम सृष्टि
प्रसादत्रयी से जुड़ा तीसरा तत्व है- दृष्टिकोण की निर्मलता। आचारांग सूत्र का प्रसिद्ध सूक्त है— 'समियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाए। असमियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए।' अर्थात जिसकी दृष्टि सम्यक् है, उसके लिए असम्यक् भी सम्यक् बन जाता है। जिसकी दृष्टि असम्यक् है उसके लिए सम्यक् भी असम्यक् में परिणत हो जाता है। इसलिए दृष्टिकोण सम्यक् और सकारात्मक रहे, यह बहुत आवश्यक है।
प्रशस्य है अनाग्रह की चेतना
दृष्टिकोण को उदात्त बनाने वाला मुख्य तत्त्व है - अनाग्रह। आग्रह अवरोध पैदा करता है। अनाग्रह की चेतना मार्ग को निर्बाध बनाती है। साध्वीप्रमुखाजी की अनाग्रहवृत्ति प्रशस्य है। स्वीकृत संकल्पों और नियमों के प्रति आपकी दृढ़ता जहां अनुमोदनीय है, वहीं गुरु-इंगित के प्रति सर्वात्मना समर्पण का भाव उल्लेखनीय और प्रेरणादायी है।
प्रसंग पौष कृष्णा दशमी का है। आप दशमी का उपवास और एकादशी को बेला करना चाहती थी। एकादशी के दिन विहार बहुत लम्बा (लगभग 16 किमी) होने से अनेक साध्वियों ने बेला न करने का निवेदन किया। आपने कहा — मेरा वर्षों का क्रम बना हुआ है, मैं इसे तोडना नहीं चाहती। दशमी के दिन साध्वियां गुरुदर्शनार्थ गईं। साध्वीप्रमुखाजी के न चाहने पर भी गुरुदेव को सारी बात निवेदित कर दी। आचार्यवर ने फरमाया — साध्वीप्रमुखाजी पौष दशमी का उपवास और एकादशी के दिन बेला करना चाहती हैं, लेकिन हमारा चिंतन कुछ भिन्न है। पौष कृष्णा दशमी का दिन भगवान पार्श्व की जन्म जयन्ती से जुड़ा हुआ है। जन्मदिन पर प्रायः उपवास नहीं किया जाता। महाप्रयाण दिन या निर्वाण दिन पर ही प्रायः उपवास किया जाता है। एकादशी का दिन आचार्य महाप्रज्ञ के महाप्रयाण का दिन है। इसलिए एकादशी का उपवास करना ही उपयुक्त लगता है। आचार्यप्रवर के फरमाने के बाद साध्वीप्रमुखाजी ने यही कहा — जैसे गुरुदेव की मर्जी। न कोई तर्क और न प्रार्थना की पुनरावृत्ति। यह है आपकी अनाग्रहशीलता का उदाहरण।
इसी प्रकार का एक प्रसंग फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी के दिन का है। सुबह गुरुवंदना के पश्चात् साध्वीप्रमुखाजी ने निवेदन किया — गुरुदेव! आज महाश्रमणीजी के महाप्रयाण का दिन है, कृपा कर मुझे बेले का प्रत्याख्यान कराएं। आचार्यप्रवर ने कहा — आपके वैसे भी बहुत कार्य रहते हैं, अनेक प्रकार की जिम्मेवारियां भी हैं, अतः बेले की बात नहीं जचती। साध्वीप्रमुखाजी ने कहा — गुरुदेव! मैं सारे कार्य करते हुए, अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए भी बेला कर सकती हूं। मुझे कोई कठिनाई नहीं है, आप कृपा कराएं। आचार्यवर ने फरमाया — बेला कराने की इच्छा नहीं है, विगय वर्जन किया जा सकता है। आपने आचार्यवर के इंगित को शिरोधार्य करते हुए यही कहा — जैसे गुरुदेव की मर्जी।
साध्वीप्रमुखाश्री जी के जीवन में सहज विनम्रता है। बड़ों से बात करते समय आपके हाथ हमेशा जुड़े रहते हैं। छोटों की अच्छी बात पर आपकी प्रसन्नता और प्रमोद भावना स्वतः व्यक्त हो जाती है। जहां विनम्रता और ग्रहणशीलता होती है, वहां आग्रह कभी भी अपना आसन नहीं जमा सकता। अनाग्रही व्यक्ति की सोच सकारात्मक होती है। साध्वीप्रमुखाश्री जी की सोच में सकारात्मक उच्चता रहती है।
'दृष्टिप्रसादो ग्रहमोचनेन' की उक्ति आपके जीवन व्यवहारों में पूर्णतया चरितार्थ होती है। देहप्रसाद, मनःप्रसाद और दृष्टिप्रसाद की इस पुण्य त्रिपथगा में अभिस्नात आपश्री के जीवन का हर क्षण प्रसादमय हो। आपके द्वारा हमें सदा प्रेरणा का प्रसाद प्राप्त होता रहे, ताकि मंजिल का मार्ग निर्बाध बन सके।
मनोनयन दिवस पर शतशः बधाइयां, मंगलकामनाएं।