
गुरुवाणी/ केन्द्र
संसारी से सिद्ध बनने का मार्ग है साधुत्व : आचार्यश्री महाश्रमण
युगदृष्टा, युगपुरुष आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 11 किमी का विहार कर अपनी धवल सेना के साथ दो दिवसीय प्रवास हेतु सिद्धपुर के स्वामीनारायण गुरुकुल ट्रस्ट विद्यालय परिसर में पधारे।संयमोत्सव समवसरण में संयम सुमेरु ने फरमाया कि — “आज हमारा सिद्धपुर में आगमन हुआ है। 'सिद्ध' नाम जैनत्व से जुड़ा हुआ है। जैन लोग तो णमोकार महामंत्र में कितनी बार सिद्धों को नमस्कार करते हैं। 'सिद्धकुमार' किसी व्यक्ति या स्थान का नाम हो सकता है। आठ कर्मों से मुक्त आत्माएं सिद्ध होती हैं। सिद्ध आत्माएँ तो मोक्ष में जा चुकी हैं। जीवों के दो विभाग होते हैं — सिद्ध और संसारी। अनंत जीव सिद्धत्व को प्राप्त कर चुके हैं, किंतु उनसे कहीं अधिक संसारी जीव हैं, जो अब भी जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण कर रहे हैं। साधु तो संसार को पीठ दिखा चुके होते हैं। वे ऋजुगति वाले होते हैं, मोक्ष की ओर उन्मुख होते हैं। सिद्ध पुरुषों ने भी अपने पूर्व जन्मों में कितनी साधना की होगी। भगवान महावीर ने भी समता की साधना कर सिद्धत्व को प्राप्त किया था। हमारा भी लक्ष्य हो — हम सिद्धत्व को प्राप्त करें।
णमोकार महामंत्र में एक पद है — 'णमो सिद्धाणं।' इसका जप अत्यंत कल्याणकारी होता है। साधु ही कभी सिद्ध बनता है। सिद्ध बनने का मार्ग है — साधुत्व का अवलंबन। साधुत्व मार्ग है, और सिद्धत्व मंजिल। दोनों का अपना-अपना महत्व है। जैसे सीढ़ियाँ होती हैं, तो आदमी आसानी से ऊपर चढ़ सकता है — वैसे ही साधुत्व, सिद्धत्व की सीढ़ी है। साधना के मार्ग में कठिनाइयाँ और परिषह आ सकते हैं — उन्हें शांति से सहन करना चाहिए। साधुत्व अत्यंत उच्च साधना है — उसके सामने भौतिक रत्न भी तुच्छ हैं। साधु को भौतिक आकर्षणों से मुक्त रहना चाहिए। सिद्धत्व प्राप्ति के लिए आसक्ति से मुक्ति आवश्यक है। भोगी संसार में भ्रमण करता है, किंतु त्यागी वैराग्य से मुक्त होता है। मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है — दीर्घकालीन संन्यास का जीवन। साधना है तो सिद्धि है। हमारे जीवन में अहिंसा रहे, और उसमें भी अभय का भाव हो। हम अभयदान देने वाले बनें। वे गुरु धन्य हैं जो अपने शिष्यों को सिद्धत्व के मार्ग पर चलाते हैं, शांति का पथ दिखाते हैं।
संत-समागम से उत्तम प्रेरणा प्राप्त हो सकती है। हमें भी संतत्व की ओर अग्रसर होना है। हम भी कभी सिद्धत्व को प्राप्त करें — यही हमारी कामना है। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा — “ब्रह्मज्ञान और परमात्मा का बोध कराने वाले ही सच्चे गुरु होते हैं। ‘गुरु’ और ‘परमात्मा’ — ये दो शब्द जीवन के पथ-प्रदर्शक हैं। गुरु वह होता है जो पाँच महाव्रतों को धारण करता है। आचार्यवर की धृति विलक्षण है — आप समस्याओं का समाधान करने वाले, भिक्षावृत्ति से जीवन यापन करने वाले, सामायिक और समता में स्थित रहने वाले, तथा धर्मोपदेश देने योग्य आदर्श गुरु हैं। आप वास्तव में एक शक्तिसंपन्न आचार्य हैं — और सिद्धत्व का मार्ग दिखाने वाले भी।”
पूज्यवर के स्वागत में लोभचंद चावत, शंकरलाल इंटोदिया, संजय इंटोदिया, कस्तूरभाई व ज्ञानार्थी तक्ष ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय महिला मण्डल ने स्वागत गीत का संगान किया। ज्ञानशाला व कन्यामंडल द्वारा “सिद्ध पुरुष की प्रस्तुति” के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति दी गई। सिद्धपुर की बहन-बेटियों ने भी अपनी प्रस्तुति दी।कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।