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सरलता एवं सौम्यता की साक्षात् प्रतिमूर्ति थी - ‘शासनश्री’ साध्वी मदनश्री
‘शासनश्री’ साध्वी मदनश्रीजी मेरे संसारपक्षीय मौसी लगती थीं। बीदासर में वैद परिवार में जन्मी। पिता इन्द्रचंद, मातुश्री लक्ष्मी देवी से अच्छे संस्कारों का बचपन में ही सिंचन हुआ। चार भाई व आप तीन बहन कुल सात भाई-बहन थे। साधु-संतों का ठिकाना पास में होने से निरंतर उनका आध्यात्मिक सहयोग मिलता गया। आपके भीतर वैराग्य भावना जागृत हुई। 16 वर्ष की उम्र में आचार्य तुलसी से संयम का अमूल्य रत्न प्राप्त हुआ। अपने इस संयम के अमूल्य रत्न को सदैव सुरक्षित रखा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की पवित्र साधना-आराधना से उसे उज्ज्वल और पवित्र बनाया।
साध्वी रायकुमारीजी, साध्वी कानकुमारीजी के पावन साए में 58 वर्ष तक रहकर जीवन में अनेक प्रगति के द्वार खोले। जीवन को कलात्मक बनाने के साथ-साथ कला के क्षेत्र में भी जैसे मुखवस्त्रिका बनाना, पात्री रंगना, ओघा बनाना, सिलाई करना आदि क्षेत्रों में निष्णात बन गईं। स्वयं तो बनीं और दूसरों को भी बड़ी मेहनत से उत्साहपूर्वक सिखाती थीं। समय-समय पर अनेक गीत, मुक्तक, कविताओं की भी रचना करती रहती थीं। मेरे पर भी उनका अनंत उपकार है। साधना-संयम पथ पर चलने की भावना जागृत करने में उनका बहुत बड़ा योग है। इसके कारण ही गुरु चरणों में दीक्षित हुई और ‘शासनश्री’ साध्वी अशोकश्रीजी के पावन साए में रहकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र के क्षेत्र में सतत आगे बढ़ रही हूं।
‘शासनश्री’ साध्वी मदनश्रीजी के जन्म के क्षणों की साक्षी तो नहीं थी, लेकिन उनके अंतिम क्षणों की साक्षी बनने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। साध्वीश्री बीदासर समाधि केंद्र में करीब 15 वर्ष स्थिरवास रही। उनका जीवन अनेक विरल विशेषताओं का पुंज था। सरलता, विनम्रता, व्यवहार-कुशलता, मिलनसारिता, मधुर भाषिता, चेहरे पर सौम्यता, धीरता, गंभीरता, स्वाध्यायशीलता, सेवाभावना, प्रमोद भावना आदि सद्गुणों से आपने साधु-साध्वियों का ही दिल नहीं जीता, अपितु आपके दर्शन करने वाले हर श्रावक-श्राविका, युवा, युवतियों एवं बालक-बालिकाओं का भी दिल जीता। उन्होंने सबको धार्मिक प्रेरणा द्वारा प्रेरित भी किया, आध्यात्मिक बोध भी दिया। आज भी उनकी स्मृतियां सबके स्मृति-पटल पर अंकित हैं।
साध्वी मदनश्रीजी की उम्र करीब 92 वर्ष हो चुकी थी। सन 2020 एवं सन् 2025 की चाकरी करने का अवसर मिला। जीवन के अंतिम 2 महीनों में असाता वेदनीय कर्म का प्रबल उदय। शरीर में एक से बढ़कर एक घोर वेदना। यह कोई वेदना थी या कोई उपद्रव या कोई परीक्षा, कुछ पता नहीं। एक वेदना शांत नहीं होती कि दूसरी वेदना, दूसरी वेदना शांत नहीं होती तो तीसरी वेदना घेरा डाल देती। इस प्रकार बीमारी पर बीमारी, पता नहीं उनकी कितनी परीक्षा हुई। मेरी सहवर्ती साध्वी चिन्मयप्रभाजी, साध्वी इन्दुप्रभाजी एवं साध्वी मानसप्रभाजी ने जो दिन-रात उत्साहपूर्वक सेवा करके महान निर्जरा की है, उसका मेरे मन में पूर्ण तोष है। यह सब संघ एवं संघपति की असीम कृपा का ही प्रसाद है।
एक तरफ वृद्धावस्था, दूसरी तरफ वेदना, किन्तु साध्वीश्रीजी का मनोबल एवं आत्मबल बहुत ही दृढ़ रहा। उनके फौलादी संकल्प ने आने वाली विकट परिस्थितियों को भी परास्त कर दिया। वे कभी घबराईं नहीं, कतराईं नहीं। वे बार-बार एक ही वाक्य कहती रहतीं—मेरे असाता वेदनीय कर्म का उदय है। मैं आने वाली वेदना को साम्यभाव से सहन करूंगी और कर्म काटूंगी। इसी भव में मेरे कर्म हल्के हो रहे हैं। रात में नींद न आने पर यही जप करती रहतीं—"आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है।" इस वाक्य को मानो उन्होंने आत्मसात कर लिया था। किसी के साता पूछने पर सदैव यही कहतीं—"मेरा मानसिक परम आनंद है।"
उन्होंने परम पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में अपने 72 वर्ष के संयमी जीवन में जाने-अनजाने में लगे पापों की आलोचना निवेदित की, तो पूज्यप्रवर ने उन्हें 51 घंटे का जप दिया। उन्होंने बड़ी एकाग्रता एवं जागरूकता पूर्वक जप करके गुरु द्वारा प्रदत्त आलोचना को बड़ी सजगता से पूर्ण कर आत्मतोष का अनुभव किया। काफी दिनों पहले अन्न-पानी से अरुचि हो गई थी। पांच दिन पहले ही आपने संलेखना के लक्ष्य से उपवास प्रारंभ किया। करीब पांच दिन की तपस्या चल रही थी। इस बीच उनकी शारीरिक शिथिलता को देखकर मैंने कई बार विनम्रता पूर्वक अनशन करने का निवेदन भी किया। वे एक ही बात बड़े विश्वास के साथ कहतीं—"समय आने पर मैं तुम्हें स्वतः ही बता दूंगी।" इस प्रकार हम मासी-भान्जी आपस में चर्चा-वार्ता करते रहते, किन्तु वे अपनी ही बात पर अड़ी रहीं।
24 अप्रैल 2025, वि. सं. 2082 वैशाख कृष्णा 11, सायं 5 बजे अकस्मात एक पांव पूरी तरह नीला हो गया। उसमें अत्यंत वेदना होने पर भी एक ही चिंतन—"आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न।" यह मंत्र उनके मुख पर रहा। भावों की श्रेणी सतत प्रवर्धमान थी। रात्रि में लगभग 11 बजे वे एक-एक को याद करके सबसे हार्दिक, करबद्ध हो खमतखामणा कर रहे थे। अचानक साध्वी मदनश्रीजी बुलंद आवाज में बोलीं—"मंजुयशाजी! अब मेरा समय आ गया है। मुझे संथारा करवा दो। देरी मत करो।" तत्काल मैंने उनको उच्च स्वर में आजीवन चौविहार संथारा पचखा दिया। देखते-देखते 21 मिनट बाद श्वास की गति रुक गई। आंखें खुलकर पूर्णतः स्थिर हो गईं। वे हमारे बीच से प्रयाण कर गईं। पांच दिन की तपस्या में 21 मिनट के चौविहार अनशन में देवलोक की ओर प्रस्थान कर दिया। एक सहज सरल आत्मा ने समता से कष्ट सहन कर समाधि-मृत्यु का सजगता के साथ वरण किया। जिन भावों से संयम स्वीकृत किया, उन्हीं चढ़ते परिणामों से आचार्य श्री महाश्रमण की शासना में अपनी संयम यात्रा को सानंद संपन्न किया। उस दिव्य आत्मा को श्रद्धा भरा नमन, नमन, नमन।