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अप्रमत भावों में विहरण करने वाली साध्वी संचितयशाजी
अचानक संवाद मिला कि साध्वी संचितयशाजी ने तिविहार फिर चौविहार संथारा कर लिया है। सम्पर्क करने का प्रयत्न हुआ तो हंसमुख भाई से ज्ञात हुआ कि उन्होंने अपना लक्ष्य सिद्ध कर लिया है। सुनते ही अतीत के वातायन से स्मृतियां उभर-उभर कर चलचित्र की भांति सामने आने लगी कि हम दोनों संस्था में साथ में रही। परमपूज्य गुरूदेव श्री तुलसी से योगक्षेम वर्ष में कर्फ्यू के वातावरण में दीक्षा भी साथ में ली। फिर दो वर्ष शिक्षा केन्द्र में प्राकृत में एम. ए. किया। बीदासर मर्यादा महोत्सव पर हम दोनों को ही अलग-अलग ग्रुप में बहिर्विहार की वंदना करवा दी। तारानगर मर्यादा महोत्सव पर डॉ. वी. सी. लोढा एवं टीम ने पी. एच. डी. के लिए साक्षात्कार किया तथा वहीं डॉक्टरेट की घोषणा हो गई। तत्पश्चात आदरणीया, शासनश्री साध्वी सोमलता जी की हम 5 साल सहवर्ती साध्वियां रही। हम दोनों गोचरी, वस्त्र प्रक्षालन आदि क्रियाएं साथ में ही किया करती।
मैंने देखा उनका सहज, सरल स्वभाव था। उनकी सहनशीलता गजब की थी। उनके आवेश-आवेग प्रतनु थे। अप्रमत भावों में विहरण करने की उनकी मानसिकता स्तुत्य थी। काम के समय काम, बाकी अपने आपमें रहती थी। 'न ऊधो का लेना न माधो को देना' कहावत के अनुसार वे किसी प्रपंच में भाग नहीं लेती थी। गुरू और अग्रणी के निर्देश के प्रति बहुत सजग थी। अपने कर्तव्य के प्रति सचेष्ट थी। आज वे सदेह हमारे बीच में नहीं है पर उनके सद्गुणों की सौरभ रह-रहकर मेरे मन को सुवासित कर रही है। आशा थी कि शायद योगक्षेम वर्ष में मिलना हो जाए पर नियति को यह मान्य नहीं था इसलिए वे हमारे मध्य से कूच कर गई। पर उनकी यश: परिमल सदैव हमारे मन-मस्तिष्क को स्पर्श करती रहेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है।