
रचनाएं
सेवा, समर्पण और साधना की प्रतीक
डॉ. साध्वी संचितयशा जी सेवाभावी एवं कर्तव्य परायण साध्वी थीं। उनकी दीक्षा गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के मुख-कमल से संपन्न हुई। दीक्षा के पश्चात उन्होंने अपना सम्पूर्ण समय अध्ययन, साधना और सेवा में समर्पित कर दिया। लगभग चौबीस वर्षों से मेरा उनसे निरंतर संपर्क बना रहा। 'शासनश्री' साध्वी सोमलता जी की सहयोगिनी होने के कारण जब भी साध्वी सोमलता जी से मिलन होता, संचितयशा जी उनकी छाया की भाँति साथ दिखाई देती थीं। डबल एम.ए. का कोर्स करके भी वे अहंकारमुक्त, सरल और विनम्र साध्वी रहीं। गत वर्ष मुंबई में गुरुदेव श्री महाश्रमण जी ने काफी लम्बा अवसर प्रदान किया। हमने देखा साध्वी श्री हमारे हर कार्य को बड़े अहो भाव से करती - चाहे सिलाई हो, रंगाई हो अन्य कोई कार्य। स्वयं अस्वस्थ रहते हुए भी निरंतर सेवा देती रहीं।
'शासनश्री' के देवलोकगमन के पश्चात वे साध्वी शकुंतला जी की भी पूरे अहोभाव से सेवा करती। साध्वी जागृतप्रभा जी एवं साध्वी रक्षितयशा जी को स्नेह से बांधे रखा। उनकी भावना थी कि उनके रहते-रहते शासनश्री की जीवनी जन-जन के हाथों तक पहुँच जाए, किंतु वह संकल्प पूर्ण न हो सका। शरीर की अस्वस्थता को देखते हुए उन्होंने गुरुदेव से आज्ञा आलोयणा प्राप्त कर संथारा पूर्वक शरीर का त्याग किया—यह बहुत बड़ी बात है। साध्वी शकुंतला कुमारी जी को अपनी अग्रगण्या व सहयोगिनी को अंत समय तक पूरा सहयोग ही नहीं जागृत अवस्था में संथारा पचखाने का जो अवसर प्राप्त हुआ, यह भी बड़ी बात है। दोनों ही साध्वियों ने मुंबई जैसे महानगर से संथारा पूर्वक विदाई ली। इस अवसर पर मैं यह मंगलकामना करता हूँ कि साध्वीश्री की आत्मा उत्तरोत्तर गतिमान होते हुए अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करें।