पुण्यवत्ता के प्रतीक थे गुरुदेव श्री तुलसी : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

रोजड़। 14 जून, 2025

पुण्यवत्ता के प्रतीक थे गुरुदेव श्री तुलसी : आचार्यश्री महाश्रमण

आषाढ़ कृष्णा तृतीया, गुरुदेव तुलसी का 29वाँ महाप्रयाण दिवस। तीर्थंकर के प्रतिनिधि, आचार्यश्री तुलसी के परंपर-पट्टधर आचार्यश्री महाश्रमणजी का रोजड़ पदार्पण हुआ। अपनी अमृत देशना प्रदान कराते हुए पूज्यवर ने फरमाया कि इस दुनिया में मित्र देखे जाते हैं। हर किसी की अपनी मित्र-मंडली होती है। यह व्यवहार जगत की बात है। पर यदि निश्चय जगत में देखा जाए और शास्त्रों में जो कहा गया है, वह यह है कि – 'पुरुष! तू ही तेरा मित्र है, फिर बाहर क्यों मित्र खोजते हो?' यह एक ऐसी स्थिति है, जो अध्यात्म की भूमिका पर अनुभूत हो सकती है। आत्मा ही मेरी मित्र है और आत्मा ही मेरी शत्रु है। भीतर रहो, बाहर जियो – मानो निश्चय और व्यवहार का संबोध दे दिया गया है। अध्यात्म की साधना में निश्चय का बहुत महत्व है। साधु को निश्चय में भी रहना चाहिए। साधु बन जाना, निश्चय में गतिमान होना हो सकता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी को सादर भावांजलि अर्पित करते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि आज आषाढ़ कृष्णा तृतीया, आचार्यश्री तुलसी की महाप्रयाण तिथि है। आचार्यश्री तुलसी ने बचपन में ही अध्यात्म का पथ स्वीकार कर लिया था। धर्मसंघ का सौभाग्य था कि वे पूज्य कालूगणी के करकमलों से दीक्षित होकर वि.सं. 1982, पौष कृष्णा पंचमी को संघ में सम्मिलित हुए। एक ऐसा बालक-रत्न जो हमारा पालक बन गया। 22 वर्ष की अवस्था में धर्मसंघ के आचार्य बन गए। अब तक के इतिहास में वे सबसे लंबा आचार्यकाल पाने वाले प्रथम आचार्य हैं।
लंबी यात्राएं करने वाले भी वे हमारे संघ के पहले आचार्य थे। यह उनकी पुण्यवत्ता का प्रतीक है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी, मुनिश्री बुद्धमलजी तथा अनेक विद्वान संत उन्हें प्राप्त हुए। साध्वी समाज में भी शिक्षा का विकास गुरुदेव तुलसी के समय में ही हुआ था। अनेक साध्वियाँ विदुषी बनीं। समण श्रेणी जैसा नया उपक्रम और पारमार्थिक शिक्षण संस्था भी उनके काल में प्रारंभ हुई थी। दीक्षा से पूर्व शिक्षा का उपक्रम भी उन्हीं के समय शुरू हुआ। अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान जैसे लोक-कल्याणकारी कार्यक्रमों की नींव उन्हीं के काल में रखी गई, जो आज भी सक्रिय हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी जैसे योग्य युवाचार्य उन्हें प्राप्त हुए। तीन-तीन साध्वी प्रमुखाओं की नियुक्ति भी आचार्यश्री तुलसी ने ही की थी। गुरुदेव तुलसी को संस्कृत, प्राकृत व आगमों का गहरा ज्ञान था। आगम संपादन का कार्य भी उनके करकमलों से प्रारंभ हुआ था, जो आज भी निरंतर चल रहा है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का भी आगम संपादन में विशेष योगदान रहा है। अनेक समस्याओं के निराकरण हेतु उन्हें कितना श्रम करना पड़ता था, यह उनके कार्य के प्रति समर्पण को दर्शाता है। उनका राजनेताओं से तथा विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं से संपर्क होता था। उनके अनेक जीवन प्रसंग मेरी आँखों के सामने हैं। मुझे उनके चरणोपपात में रहने का अवसर मिला था। उनका अध्यात्म-ज्ञान भी विशेष था। उनके महाप्रयाण को 28 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने मंगल उद्बोधन में कहा कि जैसे जनता के सेवक होते हैं, वैसे ही वे प्रभु के भी सेवक होते हैं। गुरुदेव तुलसी के जीवन को जब देखती हूँ तो लगता है कि वे जनता के सच्चे सेवक थे। वे मानवता के प्रेमी थे। मानव को ऊँचा उठाना चाहते थे। वे अपने परिचय में कहते थे – ' सबसे पहले मैं मानव हूँ।' मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए उन्होंने भरपूर भ्रमण किया, कार्य किया। अणुव्रत की जड़ों में यही भावना थी कि इंसान एक अच्छा इंसान कैसे बन सकता है। अणुव्रत की आचार-संहिता व्यक्ति को श्रेष्ठ बना सकती है। उन्होंने धर्मसंघ में व्यक्तित्व निर्माण का कार्य किया, जो अत्यंत दुरूह कार्य था। उन्होंने श्रावक समाज के विकास का भी चिंतन किया। वे एक अलौकिक व्यक्तित्व के धनी थे। उनका चुम्बकीय आकर्षण था।