संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

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धर्म का चरम फल है आत्मा का पूर्ण विकास। मनुष्य धर्म का आचरण करता है और सतत अभ्यास से अपने लक्ष्य तक पहुंचता है। जब मोहकर्म का संपूर्ण विलय हो जाता है, तब उसमें वीतरागता का प्रादुर्भाव होता है। वीतरागता का अर्थ है-समता का चरम विकास। इससे सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्ध अवस्था को प्राप्त आत्मा अपने आनंद स्वरूप में स्थित रहती है। दुःखों का अंत हो जाता है। न उसे बाहर से कुछ लेना होता है और न भीतर से कुछ छोड़ना होता है। जैसे वह था, है और रहेगा, उसे ही प्राप्त कर लेता है। यह अंतिम विकास की बात है, जहां न मन है, न वाणी है और न शरीर है।
धर्म की प्रारंभिक भूमिकाओं में मन, वाणी और शरीर रहता है। वाणी और 
शरीर स्वाधीन नहीं हैं। वे मन के अधीन हैं। मन की प्रसन्नता में वे प्रसन्न हैं और अप्रसन्नता में अप्रसन्न। धर्म सब दुःखों का अंत करता है। यह बात गीता भी कहती है- 'जो धर्म मन को विषाद-मुक्त नहीं करता, वस्तुतः वह धर्म भी नहीं है।' मानसिक प्रसन्नता अध्यात्म का फल है। वह कैसे मिलती है? कहां से प्राप्त होती है? उसकी क्या साधना है? आदि प्रश्नों का समाधान इस अध्याय में है। पिछले सभी अध्यायों का निष्कर्ष यहां उपलब्ध है। 
 
मनः प्रसाद
मेघः प्राह
१. मनःप्रसादमर्हामि, किमालम्बनमाश्रितः। 
    कथं प्रमादतो मुक्ति, आप्नोमि ब्रूहि मे विभो!
मेघ बोला-विभो ! मैं किसे आलंबन बनाकर मानसिक प्रसन्नता को पा सकता हूं? और मुझे बताइए कि मैं प्रमाद से मुक्त कैसे बन सकता हूं?
जोशुआलीवयेन ने अपने संस्मरणों में लिखा है- 'जब मैं जवान था तब मुझे क्या पाना है? इसका स्वप्न देखा करता था। एक सूची बनाई थी जिसके सूत्र थे-
१. स्वास्थ्य २. सौन्दर्य ३. सुयश ४. शक्ति ५. सम्पत्ति। बस, सतत मैं इन्हीं का स्मरण करता था और समग्र प्रयास भी इन्हें पाने के लिए था। एक अनुभवी वृद्ध सज्जन थे। मैंने सोचा इनसे सलाह ले लूं। मैं गया और अपनी सूची सामने रखी। वृद्ध हंसा और कहा-सूची सुन्दर है किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात छोड़ दी, जिसके अभाव में सब व्यर्थ है। जोशुआलीवयेन ने कहा-मेरी दृष्टि में जो भी आवश्यक है, वह सब आ गया। कोई बची हो ऐसा नहीं लगता। वृद्ध सज्जन ने सब काटते हुए कहा- Peace of Mind 'मन की शांति' यह महत्त्वपूर्ण है। ये सब हो, और अगर मन की शांति न हो तो क्या?