मन को प्रशिक्षित करने से होता है सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

उजलेश्वर। 12 जून, 2025

मन को प्रशिक्षित करने से होता है सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास : आचार्य श्री महाश्रमण

मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 10 किमी का विहार कर उजलेश्वर के एस.वी.टी. विद्यालय के प्रांगण में पधारे। विद्यालय प्रांगण में पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए पूज्यवर ने फरमाया कि पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। चित्त का एक अर्थ हम चैतन्य—आत्मा भी कर सकते हैं, जैसे—सचित और अचित। चित्त का दूसरा अर्थ ‘मन’ भी हो सकता है, जैसे—मेरा चित्त प्रसन्न है। हमारे भीतर भावधारा भी होती है। जैन वाङ्मय में छह लेश्याओं का वर्णन किया गया है। ये लेश्याएं लगभग सभी जीवों में पाई जाती हैं। केवल मनुष्यों में, और उनमें भी बहुत थोड़े से—जो चौदहवें गुणस्थान में स्थित होते हैं—इनका अभाव होता है। ये लेश्याएं शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती हैं। कृष्ण, नील, कापोत—तीन अशुभ लेश्याएं हैं, जबकि तेज, पद्म, शुक्ल—तीन शुभ लेश्याएं हैं। हमारी लेश्या, भावधारा और प्राणधारा निरंतर बदलती रहती है—कभी अच्छी, कभी बुरी हो सकती हैं।
जिस प्राणी में ‘मन’ होता है, वह विशेष होता है। ऐसे अनगिनत प्राणी हैं जिनका मन विकसित नहीं होता। विकलेन्द्रिय और अमनस्क प्राणी अविकसित माने जाते हैं। मन का होना, विकास का संकेत है। मन वाला प्राणी बहुत श्रेष्ठ कार्य कर सकता है, और बहुत निम्न भी। धर्म की साधना केवल मनुष्य ही कर सकता है। उसी तरह, सबसे अधिक पाप भी मनुष्य ही कर सकता है—जिसके कारण वह नरक में बहुत नीचे तक चला जाता है। बिना मन वाला प्राणी अधिक पाप या धर्म नहीं कर सकता, इसलिए वह ऊंची देवगति तक भी नहीं पहुंच सकता। इस प्रकार मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं—असंज्ञी मनुष्य, संज्ञी मनुष्य और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी मनुष्य। असंज्ञी जीव अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। संज्ञी मनुष्य वे हैं जिनमें ज्ञान का अनुभव होता है। केवल ज्ञान को प्राप्त कर चुके जीव नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं, क्योंकि वे मन से भी परे उठ चुके होते हैं। संज्ञित्व एक प्रकार का क्षयोपशमिक भाव है, जबकि असंज्ञित्व उदय भाव है। केवलज्ञानी के ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों का न तो क्षयोपशम होता है, न ही उदय; वे तो क्षायिक भाव को प्राप्त कर लेते हैं, अतः वे नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहे जाते हैं।
आगम में केवलज्ञानियों द्वारा प्रतिपादित ‘मन’ को एक विशिष्ट द्रव्य माना गया है। अनुत्तर विमान में स्थित देव वहीं से तीर्थंकर-केवलज्ञानी से प्रश्न करते हैं और तीर्थंकर उन्हें उत्तर प्रदान करते हैं। यह संप्रेषण इतना सूक्ष्म होता है कि दूरी कोई बाधा नहीं बनती। हमारे चतुर्थ आचार्य जयाचार्य को प्रज्ञापुरुष कहा गया है। उनका बहुश्रुत ज्ञान अद्वितीय था। उन्होंने राजस्थानी भाषा में जो साहित्य रचा है, वह पिछले पाँच सौ वर्षों में अत्यंत विशिष्ट है। यद्यपि हम भावधारा और अध्यवसाय को नहीं पकड़ सकते, किंतु ‘मन’ को तो पकड़ सकते हैं।
मन न अत्यधिक स्थूल है, न अत्यधिक सूक्ष्म। हम मन को देखने का प्रयास करें। उसमें अनेक विचार आते रहते हैं। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से मन को देखना संभव है। राग-द्वेष के भावों से बचना चाहिए। हमें सतत यह चिंतन करना चाहिए कि ' गलत विचारों का मैं समर्थन नहीं करता।' सकारात्मक संकल्पों का आना जीवन की महान उपलब्धि है। ध्यान और स्वाध्याय निरंतर चलते रहें। अच्छी चीजों को देखने से अच्छे भाव आते हैं। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा सोचें और अच्छा कार्य करें। हमारा मन निर्मल और शुद्ध बना रहे—ऐसा प्रयास करना चाहिए। पूज्यवर के स्वागत में विद्यालय की ओर से शंभुभाई खाट ने अपनी भावना व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।