
गुरुवाणी/ केन्द्र
कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध है जीवन जीने की कला : आचार्य श्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम पट्टधर, युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमणजी अहमदाबाद के सीमावर्ती क्षेत्र लिम्बड़िया स्थित पिनार्कण पब्लिक स्कूल के प्रांगण में पधारे। आर्हत् वाणी की अमृतवर्षा करते हुए महामनीषी ने जीवन में कर्तव्यबोध और उसके पालन के महत्व को रेखांकित किया। पूज्यवर ने फरमाया कि जीवन में कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध अत्यंत आवश्यक है। जो लोग अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं समझते, वे अनजाने में ऐसे अनिष्ट की ओर बढ़ सकते हैं जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होती।
साधु का प्रथम कर्तव्य अपने साधुत्व की रक्षा करना है। यदि किसी साधु के पास अन्य ज्ञान न भी हो, पर साधुता का ज्ञान और उसकी सुरक्षा का भाव होना आवश्यक है। इसके पश्चात् वह सेवा अथवा अन्य आध्यात्मिक कार्यों में संलग्न हो सकता है। गृहस्थों के लिए भी उनके सामाजिक, पारिवारिक और नैतिक कर्तव्यों की अपनी भूमिका होती है। यदि वे अपने कर्तव्य से भी श्रेष्ठ कार्य कर सकें, तो वह और विशेष बन जाता है। किसी आहत को राहत देना, सहायता करना—ये लौकिक सेवाएँ भी कर्तव्य का ही एक रूप हैं। साधु समाज भी आध्यात्मिक सेवा, प्रेरणा और सहयोग के माध्यम से समाज को दिशा दे सकता है। सेवा का संसार में अत्यंत महत्व है। ज्ञानी महान हो सकते हैं, पर जो सेवा में निरंतर तत्पर रहते हैं, वे उससे भी महान माने जाते हैं। आचार्य श्री तुलसी ने अपने जीवन में असंख्य यात्राएँ कीं, जनोद्धार का अनुपम कार्य किया—वह सेवा का ही रूप था।
हम सभी को अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहना चाहिए। कर्तव्यबोध को बनाए रखना और अकर्तव्यों से दूर रहना ही जीवन जीने की कला है। ममत्व भाव भी कर्तव्य से जुड़ा होता है—जैसे अपने शिशुओं की रक्षा के लिए हरिणी शेर से भी भिड़ जाती है। शक्ति से अधिक भक्ति का महत्व होता है। धर्म और अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में भी हम कर्तव्य की स्पष्ट परिभाषा कर सकते हैं। यदि हम अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें, तो यह जीवन को सार्थक और कल्याणकारी बना सकता है। पूज्यवर के स्वागत में स्कूल की ओर से अध्यापिका पिंकी और काजल ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।