
स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
वैदिक शास्त्रों को 'वेद' और 'बौद्ध' शास्त्रों को 'पिटक' कहा जाता है। जैन शास्त्रों के लिए 'आगम' शब्द का प्रयोग किया जाता है। आगमों के रचयिता विशिष्ट ज्ञानी होते हैं, इसलिए शेष साहित्य से उनकी विलक्षणता और विशिष्टता है। आगमों का पहला वर्गीकरण 'समवायांग' में मिलता है। दूसरा वर्गीकरण 'अनुयोगद्वार' में मिलता है। तीसरा वर्गीकरण नन्दी का है। वह विस्तृत है। चौरासी (८४) आगम और पैंतालीस (४५) आगमों के वर्गीकरण भी उपलब्ध हैं। एक वर्गीकरण में बत्तीस (३२) आगम हैं। वे इस प्रकार हैं-
अंग
१. आचार
२. सूत्रकृत
३. स्थान
४. समवाय
५. भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति)
६. ज्ञाताधर्मकथा
७. उपासकदशा
८. अन्तकृतदशा
९. अनुत्तरोपपातिकदशा
१०. प्रशनव्याकरण
११. विपाकश्रुत
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उपांग
१. औपपातिक
२. राजप्रश्नीय
३. जीवाजीवाभिगम
४. प्रज्ञापना
५. सूर्यप्रज्ञप्ति
६. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति
७. चन्द्रप्रज्ञप्ति
८. निरयावलिका
९. कल्पावतंसिका
१०. पुष्पिका
११. पुष्पचूलिका
१२. वृष्णिदशा
मूल
१. दशवैकालिक
२. उत्तराध्ययन
३. नन्दी
४. अनुयोगद्वार
१. निशीथ
२. वृहत्कल्प
३. व्यवहार
४. दशाश्रुतस्कंध
१. आवश्यक
११+१२+४+४+१= ३२
उपरिनिर्दिष्ट विभागों में स्वतः प्रमाण केवल ग्यारह अंग ही हैं, शेष सब परतः प्रमाण हैं।
ग्यारह अंगों में प्रथम है आचारांग। इसके दो श्रुतस्कन्ध (विभाग) हैं। दूसरा श्रुतस्कंध आचारचूला कहलाता है। प्रथम श्रुतस्कंध 'आयारो' को लक्षित कर यहां कुछ लिखना मुझे अभीष्ट है।
आचारांग सूत्र का प्रारम्भ आत्म जिज्ञासा से होता है। मैं कहां से आया हूं? यह ज्ञान सबको नहीं होता। कुछ जीवों को यह ज्ञान हो जाता है कि मैं अमुक मूल जगह से आया हूं, मैं पूर्व जन्म में अमुक योनि में था। उसके तीन हेतु बतलाए गए हैं-१. स्वस्मृति (पूर्व जन्म की स्मृति),
२. पर व्याकरण (प्रत्यक्ष ज्ञानी द्वारा पूर्व जन्म का निरूपण), ३. अन्य के पास श्रवण ।
इस आगम में नौ अध्ययन हैं। सातवां अध्ययन सम्प्रति अनुपलब्ध है। प्रथम अध्ययन 'शस्त्र परिज्ञा' है। आज के 'निःशस्त्रीकरण' शब्द से इसकी बहुत निकटता है। षड्जीवनिकाय-संयम का इसमें मार्गदर्शन है।
इस अध्ययन का एक सूत्रांश अप्रमाद-वृद्धि का आलम्बन सूत्र है– इयाणि णो जमहं पुमकासी पमाएणं– अब मैं वह नहीं करूंगा, जो मैंने पहले प्रमाद से किया है।