श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

गोशालक के मन में नियति का बीज अंकुरित हो गया। उसने फिर उसी भाषा में सोचा 'जो होने का होता है, वह होकर ही रहता है। मृत्यु के उपरांत सभी जीव अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं।
गौतम बड़ी तन्मयता से भगवान् की बात सुन रहे थे। उनकी बुद्धि प्रत्येक तथ्य की गहराई तक पहुंच रही थी। वे भगवान् के प्रत्येक वचन को बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ रहे थे। वे अतृप्त जिज्ञासा को शांत करने के लिए बोले- 'भंते! आपने गोशालक को शक्ति के रहस्य सिखलाए, उस विषय में कुछ सुनना चाहता हूं।'
भगवान् ने कहना प्रारम्भ किया 'एक बार हम लोग कूर्मग्राम में विहार कर रहे थे। वहां वैश्यायन नाम का तपस्वी तपस्या कर रहा था। मध्यान्ह का समय । दोनों हाथ ऊपर की ओर तने हुए थे। खुली जटा। सूर्य के सामने दृष्टि। यह थी उसकी मुद्रा। उसकी जटा से जुए भी गिर रही थीं। वह उन्हें उठाकर पुनः अपनी जटा में रख रहा था। यह देख गोशालक ने मुझसे पूछा- 'भंते! वह जुओं का आश्रयदाता कौन है?' उसने इस प्रश्न को कई बार दोहराया। तपस्वी कुद्ध हो गया। उसने गोशालक को जलाने के लिए तेजोलब्धि नामक योगशक्ति का प्रयोग किया। उसके मुंह से धुआ निकलने लगा। उसके पीछे आग की तेज लपटें दीख रही थीं। उस समय मैंने अपने शिष्य को भस्म होने देना उचित नहीं समझा। मैंने शीत तेजोलब्धि का प्रयोग कर उसे हतप्रभ कर दिया। गोशालक का जीवन बच गया।
इस घटना का उसके मन पर बहुत असर हुआ। वह तेजोलब्धि को प्राप्त करने के लिए आतुर हो गया। मैंने उसका रहस्य गोशालक को बता दिया। उसने बड़ी तत्परता से तेजोलब्धि की साधना की। वह उसे प्राप्त कर शक्तिशाली हो गया।' गौतम ने पूछा- 'भन्ते! क्या मैं वह रहस्य जान सकता हूं?'
भगवान् ने कहा-'गौतम! जो व्यक्ति छह मास तक निन्तर दो-दो उपवास (बेले-बेले) की तपस्या करता है, सूर्य के सामने दृष्टि रखकर खड़े-खड़े उसका आतप लेता है, पारणे के दिन मुट्ठी भर उबले हुए छिलकेदार उड़द खाता है और चुल्लूभर गर्म पानी पीता है, वह तेजोलब्धि को प्राप्त कर लेता है।'
गौतम जैसे-जैसे भगवान् को सुन रहे थे, वैसे-वैसे उनका मन भगवान् के चरणों में लीन हो रहा था। वे अपने गुरु के गौरवमय अतीत पर प्रफुल्ल हो रहे थे। वे भावावेश में बोले- 'भन्ते! मैंने आपको बहुत कष्ट दिया। पर क्या करूं, इसके बिना अतीत की शून्यता को भर नहीं सकता। भन्ते! आपको मेरी भावना की पूर्ति के लिए थोड़ा कष्ट और करना होगा। भन्ते! महाश्रमण पार्श्व का धर्मतीर्थ आज भी चल रहा है। उसमें सैकड़ों-सैकड़ों साधु-साध्वियां विद्यमान हैं। भगवान् से उनका कभी साक्षात् नहीं हुआ?'
'गौतम! मुझे लोकमान्य अर्हत् पार्श्व के शासन से च्युत कुछ परिव्राजक मिले थे। उनके शासन का कोई साधु नहीं मिला। गोशालक से उनका साक्षात् हुआ था। मैं कुमाराक सन्निवेश के चंपक रमणीय उद्यान में विहार कर रहा था। गोशालक मेरे साथ था। दुपहरी में उसने भिक्षा के लिए सन्निवेश में चलने का अनुरोध किया। मेरे उपवास था, इसलिए मैं नहीं गया। वह सन्निवेश में गया।
उस सन्निवेश में कूपनय नाम का कुंभकार रहता था। वह बहुत धनाढ्य था। उसकी शाला में भगवान् पार्श्व की परम्परा के साधु ठहरे हुए थे। गोशालक ने उन्हें देखा। उनके बहुरंगी वस्त्रों को देख गोशालक ने पूछा- 'आप कौन हैं?' उन्होंने उत्तर दिया-'हम श्रमण हैं। भगवान् पार्श्व के शासन में साधना कर रहे हैं।'
गोशालक बोला- 'इतने वस्त्र-पात्र रखने वाले श्रमण कैसे हो सकते हैं?'
'उसने बहुत देर तक पार्श्वपत्यीय श्रमणों से वाद-विवाद किया। फिर मेरे पास लौट आया। उसने मुझसे कहा- 'भन्ते! आज मैंने परिग्रही साधुओं को देखा है।
'मैंने अन्तर्ज्ञान से देखकर बताया- 'वे परिग्रही नहीं हैं। वे भगवान् पार्श्व के शिष्य हैं।'
'एक बार तम्बाय सन्निवेश में भी पार्श्व की परम्परा के आचार्य नन्दिषेण के श्रमणों से गोशालक मिला था। गौतम! नन्दिषेण बहुत ज्ञानी और ध्यानी श्रमण थे। वे रात्रि के समय चौराहे पर खड़े होकर ध्यान कर रहे थे। उस समय आरक्षिक का पुत्र आया। उसने नन्दिषेण को चोर समझकर मार डाला।'
'भन्ते! यह तो बहुत बुरा हुआ।'