
स्वाध्याय
संबोधि
मेघ ने जानने की बहुत लंबी यात्रा तय की। किन्तु मन की शांति नहीं मिली। ज्ञान का परिचय और संग्रह एक अलग बात है और ज्ञान की अनुभूति भिन्न। प्रत्यक्ष पानी और अन्न की बात अलग है और शब्दमय अन्न तथा पानी की पृथक्। अन्न और पानी शब्द भूख और प्यास शांत नहीं करते। केवल परिचयात्मक तत्व के संबंध में भी यही सत्य है। अनुभूत्यात्मक ज्ञान ही मनुष्य की पिपासा शांत कर सकता है। इसलिए मेघ ने कहा- 'प्रभो। मानसिक सुख, प्रसन्नता की प्राप्ति कैसे हो और कैसे हो प्रमाद से मुक्ति? कृपया मुझे इसका मार्ग-दर्शन दें।'
मेघ जानता है कि वस्तुओं से होने वाला सुख, प्रसाद या आनंद अवास्तविक है। यह क्षणिक है। आया और गया। इसमें स्थिरता नहीं है। मन एक क्षण में प्रसन्न होता है और एक क्षण में अप्रसन्न। एक क्षण सुखी होता है और दूसरे क्षण दुःखी। मुझे वह प्रसाद सुख चाहिए जो स्थायी हो, शाश्वत हो। आचार्य विनय विजयजी ने कहा है-यदि तुम्हारा मन संसार-भ्रमण के दुःख से ऊब गया हो और अनंत आनंद की प्यास तीव्र हो गई हो तो तुम अमृत रस से भरे हुए इस शांत सुधारस काव्य को सुनो।' सुख में पले-पुषे मेघ का मन संसार से उद्विग्न हो उठा और सुख और दुःख दोनों से परे जो प्रसाद आनंद है उसके लिए बेचैन हो उठा। यह प्रश्न उसकी पात्रता को व्यक्त करता है।
भगवान् प्राह
२. अनन्तानन्दसम्पूर्ण, आत्मा भवति देहिनाम्।
तच्चित्तस्तन्मना मेघ!, तदध्यवसितो भव॥
३. तद्भावनाभावितश्च, तदर्थं विहितार्पणः।
भुञ्जानोऽपि च कुर्वाणस्तिष्ठन् गच्छंस्तथा वदन्॥
४. जीवँश्च म्रियमाणश्च, युञ्जानो विषयिव्रजम्।
तल्लेश्यो लप्स्यसे नूनं, मनः प्रसादमुत्तमम्।।
(त्रिभिर्विशेषकम्)
भगवान् ने कहा-आत्मा अनन्त आनंद से परिपूर्ण है। मेघ! तू उसी में चित्त को रमा, उसी में मन को लगा और उसी में अध्यवसाय को संजोए रख।
मेघ! जब-जब तू खाए, कार्य करे, ठहरे, चले और बोले, तब-तब आत्मभावना से भावित
बन और आत्मा के लिए सब कुछ समर्पित किए रह। तू जीवनकाल में, मृत्युकाल में और इन्द्रियों का व्यापार करते समय आत्मा की लेश्या-भावधारा से प्रभावित होकर उत्तम मानसिक प्रसाद को प्राप्त होगा।
मन की तीन अवस्थाएं हैं-चित्त, मन और अध्यवसाय। चित्त ज्ञानात्मक अवस्था है।
ज्ञान के अनंतर मनन अभ्यासात्मक अवस्था मन है और अभ्यास की चिरपरिचित अवस्था अध्वयसाय है।