
गुरुवाणी/ केन्द्र
लोभ को पराजित करने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
शाहीबाग प्रवास का द्वितीय दिन। वीतराग कल्प आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी की अमृतवर्षा करते हुए फरमाया कि हमारे यहां आगम वांग्मय का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। हमारी परंपरा जैन श्वेतांबर तेरापंथ में बत्तीस आगमों की मान्यता है—11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद और 1 आवश्यक। इन बत्तीस आगमों को हम प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। इनमें भी 11 अंग स्वतः प्रमाण हैं और बाकी आगम परतः प्रमाण हैं। हर धर्म के अपने-अपने ग्रंथ होते हैं। हमारे यहां इन बत्तीस आगमों में एक है 'उत्तराध्ययन', जिसमें 36 अध्ययन हैं। इनमें तात्त्विक ज्ञान की बातें हैं और आध्यात्मिक साधना का पथदर्शन भी इस आगम से प्राप्त हो सकता है। कुछ प्रसंग, कथानक और घटनाक्रम भी हैं, जो वैराग्यवर्धक बन सकते हैं, और भी कई बातें हैं। दसवां अध्ययन छोटा सा है, जिसमें बार-बार 'समयं गोयम ! मा पमाइए' आया है।
आठवें अध्ययन में कहा गया है कि जैसे-जैसे लाभ बढ़ता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। यह जो भीतर की कामना होती है कि 'और मिल जाए, और मिल जाए' — यही लोभ की वृत्ति है। यह व्यक्ति के भीतर रहती है और दसवें गुणस्थान तक विद्यमान रहती है। चार कषायों में सबसे अंत में समाप्त होने वाला लोभ होता है। इस एक लोभ की वृत्ति के कारण व्यक्ति अनेक अपराधों में प्रवृत्त हो सकता है — वह झूठ बोल जाता है, हिंसा में चला जाता है। लोभ एक महापर्वत है, इसे हमें पतला करने का प्रयास करना चाहिए। इसका उपाय बताया गया है कि 'लोभ को संतोष से जीतें।'
हमें अपनी इच्छाओं को सीमित करने का प्रयास करना चाहिए। जो मिल गया है, उसमें संतोष रखें। लोभ को कमजोर करने के लिए अलोभ का अनुचिंतन करें। दुःख का एक बड़ा कारण भी यही लोभ है। लोभ और कामानुवृत्तियों के कारण देवों और मनुष्यों को दुःख हो सकता है।
दो बातें हैं — इच्छा और आवश्यकता। आवश्यकताएं सीमित हों, इच्छाएं भी अधिक न हों। इच्छा और आवश्यकता में संतुलन स्थापित हो जाए तो जीवन सरल बन जाता है। आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है, लेकिन इच्छाएं तो आकाश के समान अनंत होती हैं। पूज्यवर ने एक प्रसंग से समझाया गया कि दिशा बदली तो दशा बदल सकती है, भावना बदली तो व्यक्ति आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकता है। गृहस्थजन ध्यान रखें कि इच्छाएं अनपेक्षित रूप से न बढ़ें। इच्छाओं का समीकरण बना रहे। इच्छा परिमाण और भोगोपभोग परिमाण — ये दो बातें जीवन में आ जाएं तो जीवनधारा ही बदल जाती है।
व्यक्ति के जीवन में प्रामाणिकता हो। जितना हो सके झूठ-कपट से बचने का प्रयास करें। धर्म स्थान के साथ-साथ कर्म स्थान में भी धर्म प्रवेश करे। नैतिक मूल्यों का विकास हो। पैसा जीवन की आवश्यकता है, पर वह हमारे साथ नहीं जाएगा। कहा गया है — 'पूत कपूत तो क्यूं धन संचे, पूत सपूत तो क्यूं धन संचे।'
हम पीछे वालों के लिए धन की चिंता करते हैं, पर क्या हम उनके धर्म की भी चिंता करते हैं? हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमारे पीछे हमारे परिवार में धर्म के संस्कार भी रहें। हमें इस लोभ कषाय को पराजित करने का प्रयास करना चाहिए — यह हमारे लिए हितकारी होगा। साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हर व्यक्ति को जीवन में एक लक्ष्य अवश्य धारण करना चाहिए। बिना लक्ष्य का जीवन उस नौका के समान होता है, जिसमें छिद्र हो जाए — वह नौका डूब जाती है। उसी प्रकार लक्ष्यविहीन व्यक्ति भी संसार में भटकता रहता है। हमारा लक्ष्य ऊँचा और स्पष्ट होना चाहिए। लक्ष्य ऐसा हो जिसे प्राप्त कर लेने के बाद कुछ भी पाना शेष न रहे। वह लक्ष्य है 'परमार्थ का लक्ष्य', परम को प्राप्त करने का लक्ष्य। परमार्थ को सामने रखने वाला व्यक्ति सदैव उदात्त अवस्था में रहता है और जीवन को उन्नत करता जाता है। साध्वी सरस्वतीजी ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त करते हुए अपनी सहयोगी साध्वियों के साथ गीत का संगान किया। साध्वी परमयशाजी ने भी अपने हृदयोद्गार व्यक्त करते हुए सहवर्ती साध्वियों के साथ गीत का संगान किया। साध्वी केवलयशाजी ने गुरुचरणों में अपनी भावनाओं को अर्पित किया। तेरापंथ कन्या मण्डल ने अपनी प्रस्तुति की। अणुव्रत समिति-अहमदाबाद के अध्यक्ष प्रकाशचंद धींग ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। एमजी शाह ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।