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कल्पतरु पुरुष - आचार्य श्री भिक्षु
आचार्य भिक्षु का नाम सिद्ध मंत्र है, जिसके पीछे वैराग्य और साधना बोल रही है। वे जीवनपर्यंत परमार्थ की साधना में अप्रमत्त भाव से लगे रहे, जिससे वे ज्योतिपुंज बन गए। लाखों श्रद्धालुओं के आस्था-धाम बन गए। उन्होंने समुद्र-मंथन किया और रत्न निकाले। ऐसा कार्य कोई नहीं कर सका। वे जीवन में कभी नहीं चूके। उनका दर्शन सर्वथा निरापद और निर्विवाद है। उनकी जोड़ कला बेजोड़ है।
भक्त हृदय से स्वर निकला था – वे तीर्थंकर-केवली के समान हैं तथा उनकी जोड़ निर्युक्ति-साहित्य के समान है। अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी ने जीवन की संध्या में अपने अनुभव-स्वर सुनाते हुए कहा था – ‘परमपूज्य भिक्षु स्वामी भगवान आदिनाथ जैसे हुए हैं। उन्होंने ऐसी न्यायपूर्ण व्यवस्था की है, जो भगवान आदिनाथ की याद दिला देती है।’ वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वे साहसी और महानतम पुरुष थे। सारे संसार के हितैषी और कल्याण की कामना करने वाले थे। उन्होंने न सुविधाओं का सहारा लिया और न कठिनाइयों से भय खाया। उनकी कष्ट-सहिष्णुता बेजोड़ थी। उन्होंने प्रतिस्रोत में चलने का संकल्प किया और धर्म का मौलिक स्वरूप जनता-जनार्दन को बताया। 33 वर्ष की युवावस्था में धर्म क्रांति की और सत्य की प्रतिष्ठा की।
सत्य सारभूत तत्त्व है। उस पर चलने वाला अजर-अमर हो जाता है। आचार्य भिक्षु का जीवन इसका प्रेरक निदर्शन है। उनकी आत्म-निष्ठा और सत्य-निष्ठा से प्रभावित होकर शोभजी श्रावक ने उनके नाम की सुंदरतम व्याख्या कर डाली। ‘भीखणजी’ शब्द के चार अक्षरों की विवेचना करते हुए उन्होंने लिखा – 'भी' का अर्थ है भिक्षु व्रत ग्रहण करना, 'ख' का अर्थ है क्षमा रस को पीना, 'न' का अर्थ है सावद्य कार्यों को छोड़ना और 'जी' का अर्थ है इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना। उनकी यह मीमांसा अत्यंत हृदयस्पर्शी है। अपने उद्गारों को स्वर देते हुए उन्होंने लिखा –
‘भी’ कहतां भिक्षु व्रत लीधा, ‘ख’ कहतां खिम्या रस पीध जी।
‘न’ कहतां सावद काम निवार्या, ‘जी’ कहतां इंद्रयां नै जीत जी।।
चार सर्वोत्तम धर्म है। आचार्य भिक्षु की आचार-निष्ठा अद्वितीय थी। वे निरतिचार चारित्र के प्रतिष्ठापक थे। उनकी समता और सहिष्णुता अखंड थी। उनके उन्नत संस्कार धर्मसंध में परंपरा बन गए। श्रावक महेशदास ने इस सच्चाई को उजागर करते हुए अत्यंत चुनौतीपूर्ण शब्दों में लिखा –
वीर गणधर तणी पूज भिक्षु तणी, एक सरधा कछू फेर नाहीं।
दूसरो मोय बतायद्यो भविकजन, शुद्ध साधू इण भरत मांही।।
आचार्य श्री भिक्षु सिद्धयोगी थे। वैरागी और आत्मार्थ पुरुष थे। उन्होंने पंचम आरे में चतुर्थ आरे की रचना कर दी। वे अवतारी पुरुष थे। उनका गुणोत्कीर्तन करते हुए पूज्य आचार्य श्री तुलसी ने भावोत्कर्ष के साथ लिखा –
दुःषम आरे भरत मझारे, प्रगट्या भिक्षु स्वाम।
अरहंत-देव ज्यूं धर्म दिपायो, पायो जग में नाम।।
आचार्य श्री भिक्षु धर्म-प्रवर्तक और समृद्ध साहित्यकार हैं। उन्होंने धर्म को पुनर्जीवित किया और साहित्य की रचना की। धर्म के प्राण तत्त्व वीतरागता की प्रतिष्ठा उनके साहित्य में देखी जा सकती है। जिनवाणी के प्रति उनका समर्पण अपूर्व कहा जा सकता है। ऐसी सत्यान्वेषी और सद्धर्मजीवी महापुरुष संसार में विरल होते हैं। उनकी विरल विशेषताओं से प्रभावित होकर एक मनस्वी व्यक्ति ने लिखा –
सुख वैभव भावी पीढ़ी को, कालकूट तुम स्वयं पी गए।
मृत्यु भला क्या तुम्हें मारती, मरकर भी तुम पुनः जी गए।।
गंग जमुन सा निर्मल जीवन, सत्य शोध के प्रबल पुजारी।
मरघट में भी अलख जगाया, अलबेले बाँके अवतारी।।
आचार्य श्री भिक्षु का संपूर्ण जीवन अप्रमत्त जीवन है। आदि से लेकर अंत तक उनका जीवन मंगलमय है। जीवन के संध्याकाल में उनकी निर्मलता अनुत्तर हो गई थी। बेले के तप में स्वयं ने संथारा पचखा था। प्रत्यक्षदर्शी मुनि श्री वेणीरामजी ने लिखा – ‘अंत समय में आचार्य श्री भिक्षु को अवधि ज्ञान हुआ, इसमें मुझे शंका नहीं है। निश्चित रूप में केवल ज्ञानी ही बता सकते हैं।’ सात प्रहर के अनशन में सिरियारी में महाप्रयाण कर वे इतिहास-पुरुष बन गए।
आचार्य श्री भिक्षु इस युग में 'कल्पतरु पुरुष' बन गए। उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की झलक पाकर इस सच्चाई का अनुभव किया जा सकता है। उनकी निष्कारण करुणा उन्हें 'कल्पतरु पुरुष' के रूप में प्रतिष्ठित करती है। जीवन पर्यंत प्रतिस्रोत में चलते रहे, विरोध को झेलते रहे और जनोपकार करते रहे। इसीलिए उन्हें 'कल्पतरु पुरुष' कहना समीचीन लगता है। कवि-हृदय की अनमोल पंक्तियां हैं –
कारण बिन जग सूं करै, आठ पोहर उपगार।
जांणीजे सुरतरु जिकै, मानव लोक मझार।।
अगले अंक में क्रमशः ...