संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

आनंद का स्रोत बाहर नहीं है। हमारी आत्मा ही अनंत आनंद से संपन्न है। चित्त, मन और अध्यवसाय जब आत्मोन्मुख होते हैं तब आनंद का उद्भव होता है। जब वे बाहर घूमते है तब आनंद का आभास हो सकता है, किन्तु यथार्थ आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। आनंद या मानसिक प्रसन्नता के लिए इनका आत्मा में विलीन होना आवश्यक है।
५. आत्मस्थित आत्महित, आत्मयोगी ततो भव। 
    आत्मपराक्रमो नित्यं, ध्यानलीनः स्थिराशयः॥
तू आत्मा में स्थिर, आत्मा के लिए हितकर, आत्मयोगी, आत्मा के लिए पराक्रम करने वाला, ध्यान में लीन और स्थिर आशय वाला बन।
महावीर मानसिक आनंद की सर्वोच्च प्रक्रिया प्रस्तुत कर रहे हैं। जब तक मन चित्त और अध्यवसाय बाहर के आकर्षणों से मुक्त नहीं होते तब तक मानसिक प्रसाद का स्रोत प्रकट नहीं हो सकता। उसके समस्त प्रयास गज स्नानवत् होंगे। चित्त-शुद्धि सर्वप्रथम है। जो साधक ध्यान साधना में प्रविष्ट होना चाहता है उसे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मनःशुद्धि के बिना ध्यान साधना का प्रयोजन सफल नहीं होता। वह इधर-उधर कितनी ही छलांग मारे, अंततोगत्वा अपने को वहीं खड़ा पाएगा। मन की प्रसन्नता का पहला पाठ है-मनःशुद्धि। और दूसरा पाठ है-मन को बाहर से हटाकर चेतना के साथ संयुक्त करना।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा.... 'अब तू स्वयं कुछ नहीं है। जो कुछ करना है, वह मुझे समर्पित करके कर। तू प्रत्येक क्रिया में देख कि मैं नहीं हूं, बस, जो कुछ है वह सब श्रीकृष्ण है।'
अष्टावक्र ने जनक से कहा-'तू राज्य कर, पर अब यह राज्य तेरा नहीं है। तू अपना सर्वस्व मुझे दे चुका है। यह मेरा कार्य है और तुझे करना है। ऐसा मानकर कर।'
साधक के लिए 'मैं' को तोड़ना अनिवार्य है। मैं करता हूं, मैं खाता हूं, मैं देता हूं आदि। मैं को तोड़ने के लिए यह सरलतम उपाय है। वह बीच में न आए। सब कुछ है वह गुरु है, प्रभु है। महावीर इसी भावना को प्रस्तुत कर रहे हैं-मेघ ! तू अपने मन, चित्त, अध्यवसाय को आत्मा में नियोजित कर, समस्त क्रियाएं करता हुआ आत्मा को सामने रख। जीवन और मृत्यु तथा इन्द्रियों के प्रवृत्तिकाल में आत्मा को एक क्षण भी विस्मृत मत कर। आत्मा की विस्मृति दुःख है और स्मृति सुख। प्रवृत्ति का स्रोत बदल जाने पर सब कुछ बदल जाएगा। अब तक जो कुछ करता आया था उसमें शरीर, मन, वाणी और इन्द्रियों की प्रधानता थीं और अब आत्मा प्रधान हो जाएगी। बाहर की प्रवृत्ति चंचलता लाती है और अंतर् से दूर करती है। जीवन का परम सार-सूत्र है-आत्म-स्थित होना, आत्मा को सामने रखकर प्रवृत्त होना।